12/24/2007

तारे ज़मीन पर

अपने देश में नेकनीयती और साफ़गोई का ऐसा भयानक दलिद्दर है कि एक आदमी भीड़ से हटकर ज़रा भी अलग रास्‍ते पर पैर रखे ऐसा हल्‍ला होने लगता है मानो परमहंस का नया अवतार हो रहा हो, या गांधी बाबा नया आश्रम खोलनेवाले हों! फिर वह आदमी आमिर खान जैसा बड़ा, सेलेक्टिव स्‍टार हो तब तो कहना ही क्‍या. ‘तारे ज़मीन पर’ के रिलीज़ होने के साथ पत्रिकाओं में दो पेज़ के फीचर से लेकर कवर स्‍टोरी तक हर जगह अभी कुछ ऐसी ही छटा फैल गई और बनी रहनेवाली है कि फ़ि‍ल्‍म कैसी अद्भुत, और उसे सिरजनेवाली शख्‍सीयत कैसी अनोखी है! दिक़्क़त इन सुपरलेटिव्‍स की है, बाकी मामला दुरुस्‍त, स्‍वस्‍थ्‍य, खुशग़वार है. ‘तारे ज़मीन पर’ में तारे भी हैं और साफ़-सुथरी ज़मीन भी. आमिर खान की पहली डायरे‍क्‍टोरियल कोशिश है तो उसे ज़रा ऊंची आवाज़ में ताली सुनने का हक़ बनता भी है..

आमिर पॉपुलर सिनेमा के आदमी हैं और पॉपुलर सिनेमा की उनकी जो, जैसी समझ होगी उस पैरामीटर्स में कंसिस्‍टेंट रहते हुए आमिर ने एक ठीक-ठाक मनोरंजक और समझदार फ़ि‍ल्‍म बनाई है. दर्शील सफारी एक सुलझा और समझदार बच्‍चा है. पारंपरिक रूप से सफल बच्‍चे जो सबकुछ कर सकते हैं, उन्‍हें न कर पाने के तनाव और दबाव में जीवन के साथ उसके संबंध व दुनिया को देखने के उसके अंदाज़ के मोह में हम गिरफ़्तार बने रहते हैं, और मनोरंजक तरीके से बने रहते हैं. फ़ि‍ल्‍म का फर्स्‍ट हाफ लगभग दर्शील के कौतुक देखते, उनमें उलझे कैसे गुजर जाती है आपको ख्‍़याल भी नहीं रहता. इंटरवल में आमिर की एक हें-हें, ठें-ठें गाने के साथ एंट्री होती है और हीरो की चिंताओं को एस्‍टेबलिश करने के चक्‍कर में स्क्रिप्‍ट फ़ि‍ल्‍म के असल नायक दर्शील को काफ़ी वक़्त तक चुप करा देती है. ठेंठे वाले गाने के बाद परेशान बच्‍चे के बारे में परेशान होता आमिर का राम शंकर निकुंभ एकदम-से गंभीर हो जाता है और फ़ि‍ल्‍म का यह तीस-चालिस मिनट का ‘आमिरी’ समय उतना एंटरटेनिंग नहीं, उसके बाद फ़ि‍ल्‍म फिर अपना लय पकड़ती है और आखिर तक पकड़े रहती है. अंतिम क्षणों के करीब सिनेमा हॉल के अंधेरे में ज़रा-सी मानवीयता कैसे बचाये रखी जाये के लिए आंसू बहाते हुए हम भोले, भावुक दर्शक‍ क्षणिक तौर पर सुखी बन जाते हैं.

दर्शील सफारी फ़ि‍ल्‍म की उपलब्धि है. उसकी स्‍वाभाविकता, स्‍पॉंटेनिटी, उसकी मैच्‍यूर समझदारी- सब. फिल्‍म के काफी सारे हिस्‍से काफी ढंग से लिखे और एक्‍ट भी किये गए हैं. दर्शिल का स्‍कूल बंक करके आवारा भटकना और दर्शिल के पैरेंट्स से मिलने निकले आमिर की सड़क यात्रा छोटे, दिलचस्‍प सिनेमेटिक मोमेंट बनते हैं. हालांकि दर्शिल के पिता और बोर्डिंग के अध्‍यापकों को विलेन बनाने के कैरिकेचर से बचा जाता तो शायद फ़ि‍ल्‍म और उम्‍दा बनती. गाने कहानी में ठीक से गुंथे हुए हैं और उनके साथ अच्‍छी बात है कि उनमें ऑर्केस्‍ट्रेशन का हल्‍ला नहीं है. उनमें एक कथात्‍मकता है लेकिन बुरी बात यह भी है कि उनमें मेलॅडी की अमीरी नहीं. तो अपने खत्‍म होने के साथ वे उतनी ही आसानी से भुला भी दिये जाते हैं. शायद यह एक कॉंशस प्रयोग हो और खुद में ऐसी बुरी बात न भी हो. सेतु का कैमरावर्क अच्‍छा, फ्रेंडली, एक्‍सेसिबल और कल्‍पनाशील है. वैसा ही प्रॉडक्‍शन डिज़ाईन और एनिमेशन का इस्‍तेमाल भी. अपने व अपने बच्‍चे पर उखड़ने के बाद आप जाकर फिल्‍म देख आयें, गिनकर पांच दफ़ा आंख के कोनों पर नमी महसूस करें, देखिए, मज़ा आयेगा. इससे अलग काम की एक और बात. . जहां तक अपने यहां समस्‍या-प्रधान चरित्रोंवाली संजय भंसाली की 'ब्‍लैक' टाइप फ़ि‍ल्‍मों की बात है, 'तारे ज़मीन पर' उससे दस नहीं तीस कदम आगे है और सिर्फ़ इसी बिना पर उसे मुहब्‍बत से देखी जानी चाहिए.

12/23/2007

दो फ़ि‍ल्‍म और आधी..

Two and Half Films…

Having been stuck by monetary troubles, later on rescued and taken to theatres by UTV ‘Khosla ka Ghosla’ (2006) is quite an amusing and titillating film about life and living in Delhi. Other than the last half an hour or so when the elder son plans and executes to get back the money stolen from his family by the baddie land mafia, the film runs pretty smoothly with nice character etchings and intelligent dialogues. Till date the six films that Jaideep Sahni has written, three (Company, Chak de! India and Khosla ka Ghosla) are quite decent accomplishment. Even actors do their part pretty all right. Its first film for director Dibakar Banerjee. We should hope to see more interesting outputs from him in coming years.

The second film, ‘Manorama Six Feet Under’ is a also a first film for director Navdeep Singh written with Devika Bhagat. Though considering it to be a thriller, the writing could have been more tight and intriguing. Writers mix up the laid back set-up with the story telling as well and the ploy kills the viewers’ interest for the whole two-third of the film. The film moves tiredly and a flat performance by Abhay Deol hardly infuses with any warmth or intelligence. Though it’s a pleasing to watch Vinay Pathak, Gul Panag and Raima Sen in cameo roles. The camerawork by Arvind Kannabiran is very impressive. But watching the film one feels one is in company of a good and sensitive director. Lets wait and see what twists and turns Navdeep gives us in future.

The remaining half film that I am going to write about is not by a first timer. Its more expensive, more ambitious but after first three minutes or so, one realizes its going to be a hopeless journey. In fact it doesn’t even become any journey as it just refuses to go anywhere. Whatever the prmos, producer say or media blabbers about, the film doesn’t have a story. It doesn’t even have a sequence worth mentioning about. The whole thing is just a compilation of glossy images hopelessly going nowhere. Well, it’s pretty ‘Khoya Khoya…’ whatever.

By Jainarain

12/11/2007

कॉफ़ी एंड सिगरेट्स..

पोलिश मूल के अमरीकी जिम जारमुश ने न्‍यूऑर्क फ़ि‍ल्‍म स्‍कूल में पढ़ाई के दौरान ही अपने हिस्‍से की शॉर्ट फिल्‍म को 15,000 डालर्स के फिसड्डी बजट में एक फीचर की तरह शूट किया ().. पढ़ाई के बाद कुछ वक़्त फ्रांस में गुजारने के बाद जब वापस अमरीका लौटे तो विम वेंडर्स को शूटिंग करते हुए पकड़ा, अपनी फिल्‍म की शूटिंग में बझे वेंडर्स से रॉ स्‍टॉक हासिल किया और 1984 में अपनी पहली व्‍यवस्थित फ़ि‍ल्‍म बनाई- ‘स्‍ट्रेंजर देन पैराडाइज़’- जो कान में कैमरा दा’र के पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत हुई. अस्‍सी के शुरूआत से सिनेमा में सक्रिय जारमुश मुख्‍यधारा से बाहर उन फ़ि‍ल्‍मकारों में हैं जो अब भी काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों को जिंदा रखे हुए हैं. आइए, उनकी फीचर ‘कॉफ़ी एंड सिगरेट्स’ (2003) की कुछ क्लिपिंग्‍स देखते हैं..

फ़ि‍ल्‍म का पहला एपिसोड:



टॉम वेट्स और इगी पॉप एपिसोड:



कज़न्‍स एपिसोड. एक सफल एक्‍टर की ज़रा अपने प्रति सुरक्षा देखिए:



मोर कज़न्‍स:



जुड़वां एपिसोड:



नेट पर यहां द गार्जियन का लिया जारमुश का एक इंटरव्‍यू.

(ऊपर टॉम वेट्स के साथ जिम जारमुश)

12/08/2007

पुरानी फ़ि‍ल्‍म रीविजिटेड..

बचपन में देखी, और देखकर लहालोट हुई फ़ि‍ल्‍मों पर दुबारा लौटना, देखना ख़तरनाक खेल है. अब तक मेरा अनुभव तो यही रहा है (हो सकता है सिनेमा से ज़रा ज़्यादा जुड़े रहने और उसके विविध पहलुओं की छांट-छटाई के स्‍वाभाविक अभ्‍यास ने यह ‘खेल’ मेरे लिए थोड़ा ज्यादा निर्मम बना दिया हो, मगर कमोबेश ऐसे अनुभव अन्‍य लोगों को भी हुए ही होंगे. फिर, यह भी सच है कि कुछ फ़ि‍ल्‍में- इसलिए कि उनकी फ़ि‍ल्‍ममेकिंग विशिष्‍ट है- सदाबहार बनी भी रहती हैं). ख़ैर, मैं बचपन की देखी फ़ि‍ल्‍मों के ‘री-विजिट’ के ख़तरों की बाबत कह रहा था. और विनम्रता के साथ ज़ोर देकर कहना चाह रहा हूं कि इन मान्‍यताओं को किसी व्‍यक्ति या काम-विशेष के विरूद्ध न समझा जाये. तो पहले भी ऐसे मौके आये थे. राजेश खन्‍ना और नन्‍दा की एक थ्रिलर थी, ‘द ट्रेन’. बचपन में देखने पर बड़ा मज़ा आया था कि क्‍या धांसू स्‍टंट हैं, कहानी का कसाव है इत्‍यादि-इत्‍यादि. गाने तो बढ़ि‍या थे ही (गुलाबी आंखें जो तेरी देखीं शराबी ये दिल हो गया; किसलिए मैंने तुझे प्‍यार किया, किसलिए इक़रार किया, सांझ-सबेरे तेरी राह देखी), बहुत वर्षों बाद कहीं से सीडी लेकर फ़ि‍ल्‍म लगाई, फिर वही मज़ा लेने की कोशिश की तो हाथ-पैर फूलने लगे! चेतन आनंद ने इन्‍द्राणी मुखर्जी और राजेश खन्‍ना के साथ एक फ़ि‍ल्‍म की थी- आख़ि‍री ख़त, चेतन साहब का अपना ‘बेबीज़ डे आऊट’. गाने उसमें भी मस्‍त थे- बहारों मेरा भी जीवन संवारो, भूपिंदर का ‘रुत जंवा, जवां, रात मेहरबां’), बचपन में खूब आंखें गीली हुई थीं, दुबारा देखने पर चेतन साहब की पूरी फिल्‍ममेकिंग रहस्‍यवाद लग रही थी. लग रहा था कैमरा चालू करने के बाद भूल गए हों कि इन द फ़र्स्‍ट प्‍लेस चालू किया क्‍यों था और चालू कर दिया तो ‘कट’ जैसी कोई चीज़ बोली भी जाती है!

ओपी रल्‍हन एक कॉमेडियन हुआ करते थे, धर्मेंद्र और मीना कुमारी को लेकर एक सोशल ड्रामा बनायी थी (डायरेक्ट्रियल डेबू)- फूल और पत्‍थर. धमाल फ़ि‍ल्‍म थी, धमाल चली भी थी. दुबारा प्‍लेयर पर चढ़ाने के बाद हमसे दस मिनट चलाते नहीं चली. इस श्रृंखला में और नाम हैं- मनोज कुमार की ‘पहचान’ (बस यही अपराध हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्‍यार करता हूं.. पाक़ि‍ज़ा को फेल करके उस साल फिल्‍मफेयर के अवार्ड्स हथियानेवाली फिल्‍म पहचान ही थी!), चेतन आनंद की ‘हंसते ज़ख़्म’, विजय आनंद की ‘तेरे मेरे सपने’, यश चोपड़ा की ‘इत्‍तेफ़ाक’, कि कभी मज़ा आया था लेकिन दुबारा देखने पर क्‍यों मज़ा आया था का सवाल पहेली बनकर रह गया. यही बात विमल राय की ‘मधुमती’, ‘देवदास’, के आसिफ के ‘मुग़ले-आज़म’ और साऊथ की ‘राम और श्‍याम’ और रमेश सिप्‍पी के ‘शोले’ देखने पर नहीं होता. मगर कल फिर खेल में फंस गया और मुंह की खायी.

जब आयी थी तो मैंने ही नहीं, बहुतों ने आनन्‍द लिया था और फिल्‍म को हिट बनायी थी. बासू चटर्जी की ‘रजनीगंधा’. मन्‍नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित अमोल पालेकर और विद्या सिन्‍हा की पहली, प्रेम त्रिकोण फिल्‍म (1974). कल फिल्‍म दुबारा देखना हुआ तो मन में बार-बार यही बात आ रही थी कि कुछ फिल्‍में अपने समय का मिज़ाज भले पकड़ती हों, होती निहायत ‘डेटेड’ हैं, और बतौर फिल्‍म उनका भविष्‍य नहीं होता! माने स्क्रिप्‍ट और संवाद ऐसे थे कि उसे पढ़ने का ख़्याल आते बोरियत होने लगे. बहुत सारे संवाद दो नहीं, लगता था चार-चार बार बोले जा रहे हैं. फिर हंसी और उदासी के बने-बनाये चार एक्‍सप्रेशंस. केके महाजन का कैमरा वर्क ऐसा मानो आज के सीरियल एपिसोड की फिल्‍म बारह दिन में छापने की हड़बड़ी हो. कोई कल्‍पनाशीलता नहीं. सब बड़े सीधे-सपाट इमेज़ेस. कभी-कभी सलिल चौधरी के बैकग्राउंड स्‍कोर और मुकेश का ‘कई बार यूं ही देखा है..’ से अलग पूरी कसरत अब एक भयानक थकान की तरह याद रहनेवाली है. जय हो बचपन की मधुर स्‍मृतियां..

12/06/2007

प्‍यार करने के ख़तरनाक नतीजे..

सत्‍तर के दशक के फ्रंचेस्‍को रोज़ी, बेर्तोलुच्‍ची के इतालवी सिनेमा का वर्तमान बेहद निराशाजनक है. पिछले तीसेक वर्षों से रहा है. मोनिका बेलुच्‍ची और जुसेप्‍पे तोरनातोरे के सेंसुअस सिनेमा (‘इल चिनेमा परादिज़ो’, ‘मलेना’) ने भले अपने चहेते बनाये हों, आठवें दशक की शुरुआत से- नान्‍नी मोरेत्‍ती और फ्रांको मरेस्‍कोदनियेले चिप्री जैसे चंद नामों से अलग शायद ही ऐसे इतालवी निर्देशक बचे हों, फ़ि‍ल्‍म-लुभैयों की अंतर्राष्‍ट्रीय बिरादरी जिसका बेसब्री से इंतज़ार करती हो. जो कुछेक महत्‍वपूर्ण काम हुआ है, सब मुख्‍यधारा और रोम के दक्षिण में हुआ है. साऊथ का सिसिलियन कनेक्‍शन. प्राचीनता की जड़ों व उत्‍तर-औद्योगिक समाज के पेचिदे रिश्‍तों की अपने-अपने तरीकों से, इ‍तमिनान से पड़ताल करता सिनेमा. दक्षिण के इन नये निर्देशकों में पाओलो सोर्रेंतिनो भी एक ख़ास नाम है (पैदाइश नेपल्‍स, 1970). अब तक छह फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं. मैंने जो देखी, ‘द कन्सिक्‍वेंसेज़ ऑव लव’ (अंतर्राष्‍ट्रीय अंग्रेजी शीर्षक) वह 2004 में बनाई थी. रोमन भराव के मध्‍य अकेलापन. प्रेम का अकाल और प्रेमजन्‍य दुस्‍साहस की धीमे-धीमे बुनती सनसनियों के आधुनिक बिम्‍ब.

पिछले दिनों मिली-जुली कुछ और फ़ि‍ल्‍में देखीं. 1973, पैरिस, फ्रांस में जन्‍मे डैनिश सिनेकार दागुर कारि की 2005 में बनाई ‘डार्क हॉर्स’ (अंतर्राष्‍ट्रीय अंग्रेजी शीर्षक). कुछ-कुछ जिम जारमुश की काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों के असर वाली कारि की फ़ि‍ल्‍म ज्‍यादा सरल व कॉमिक है. साधारणता का औसत जीवन जीते नायक की छोटी-छोटी अस्तित्‍ववादी परेशानियां एक खूबसूरत ग्राफ़ खड़ा करती हैं.

फिर ऑरसन वेल्‍स की ‘मिस्‍टर अर्काडिन’. लम्‍बी अवधि तक शूटिंग व हॉलीवुड स्‍टुडियो के टंटों में फंसी रही मुश्किल और परतदार फ़ि‍ल्‍म (जैसीकि वेल्‍स की फ़ि‍ल्‍में होती हैं. बहुतों को बहुत अच्‍छी लगती है तो ऐसे भी ढेरों स्‍वर हैं जो अर्काडिन को ‘सिटिज़न केन’ का कमतर ऑफ़शूट बताते हैं. पर्सनली मेरे लिए अच्‍छी कसावट की अच्‍छी वेल्सियन फ़ि‍ल्‍म.

जर्मनी के हरज़ोग की 1977 की ‘स्‍त्रोज़ेक’. दो लात खाये चरित्रों का इस उम्‍मीद में अमरीका पलायन कि वह उन्‍हें अमीर व सुखी कर देगा. फिर सपनों के देश का दु:स्‍वप्‍न में बदलना. टिपिकल, रिच हर्जोगियन ईनसाइट.

12/01/2007

माइकल मूर की सिको

साल: 2007
भाषा: अंग्रेजी
लेखक-निर्देशक: माइकल मूर
रेटिंग: ***

बहुत बार गांव में रहनेवाला व्‍यक्ति बाहरी संसार को सिर्फ़ किवदंतियों और उड़ी हुई सूचनाओं के सहारे जानता है. बाहरी जगहों की झूठी कहानियां ही उसका निजी यथार्थ बनी रहती हैं. माइकल मूर अपनी ताज़ा डॉक्‍यूमेंट्री ‘सिको’ में समूचे अमरीकी मानस को एक ऐसे बड़े गांव की ही तरह दिखाते हैं.. जहां सरकार (निक्‍सन के ज़माने से) और राक्षसी मेडिकल इंश्‍युरेंस कॉरपोरेशंस की मिली-भगत से हेल्‍थ केयर के क्षेत्र में साधनहीन तो दूर, ठीक-ठाक मध्‍यवर्गीय परिवार भी अपनों को कुत्‍तों की मौत मरता देख रहे हैं और स्‍तब्‍ध हैं.. मगर आधुनिक जीवन के इस दुश्‍चक्र से बाहर आने का जिन्‍हें विकल्‍प नहीं दिखता.. जबकि अमरीका के ठीक पड़ोस कनाडा में हेल्‍थ केयर हर नागरिक के लिए मुफ्त है (मूर कनाडा के बाद हमें इंग्‍लैण्‍ड और फ्रांस घुमाते हैं, और दिखाते हैं कि वहां भी कनाडा की ही तरह नागरिकों के स्‍वास्‍थ्‍य का जिम्‍मा सरकार है, और सेवायें मुफ़्त है).. जबकि एक आम अमरीकी की पारंपरिक नज़र में कनाडा, इंग्‍लैण्‍ड, फ्रांस अमरीका की तुलना में हास्‍यास्‍पद मुल्‍क हैं.. क्‍यों? फिल्‍म के बीच कहीं मूर मज़ेदार सवाल करते हैं, कहीं इसीलिए तो नहीं कि हमारे शासक नहीं चाहते कि हम इन मुल्‍कों के अच्‍छे पहलू देखें और अपने जीवन में उसकी कामना करें?..

दो घंटों की इस बड़ी डॉक्‍यूमेंट्री में, जैसाकि मूर की अन्‍य फ़ि‍ल्‍मों के साथ भी है, ख़ास रवानी और रोचकता बनी रहती है. बीच-बीच में ऐसे हिस्‍से आते हैं ठहरकर सोचने का मन करे. फ़ि‍ल्‍म में एक दृश्‍य है जब एक बड़ा कॉरपोरेट अस्‍पताल पैसा भर पाने में लाचार मरीजों को गाड़ि‍यों में भर बाहर सड़क पर ठेल आता है. वॉयस-ओवर में मूर सवाल करते हैं: “May I take a minute to ask a question that has been on my mind? Who are we? Is this what we've become? A nation that dumps its own citizens like so much garbage on the side of the curb, because they can't pay their hospital bill?... आगे कहते हैं: “I always thought and believe to this day that we're good and generous people. This is what we do when somebody's in trouble.. They say that you can judge a society by how it treats those who are the worst-off. But is the opposite true? That you can judge a society by how it treats its best? Its heroes?”

अमरीकी भलमनसी की तस्‍वीरों से होती हुई फ़ि‍ल्‍म कुछ उन आम फायर फाइटरों के जीवन में झांकती है जिन्‍होंने 9/11 के दरमियान महीनों मलबों के भीतर जनसेवा में गुजारे थे, मलबों के भीतर गुजारे समय के असर में पांच वर्षों बाद अब जब वे अजीबो-गरीब बीमारियों से ग्रस्‍त हैं तो सरकार ने उनकी किसी भी तरह की मदद से हाथ खींच लिए हैं. आतंकवादियों के रख-रखाव वाला सबसे बड़ा अड्डा ग्‍वांतानामो बे में बीमारों की देखरेख के लिए सब सुविधाएं हैं, सरकार ने इसका विशेष इंतज़ाम किया है, लेकिन 9/11 के आम हीरोज़ को उसने उनके हाल पर छोड़ दिया है..

एक अच्‍छे एक्टिविस्‍ट फ़ि‍ल्‍ममेकर की तरह मूर यहां एक मज़ेदार काम करते हैं. ऐसे इन सारे मरीजों को किराये की तीन नावों में लाद सीधे ग्‍वांतानामो बे पहुंचते हैं कि भइया, ख़ासम-खास आतंकवादियों की देखभाल कर रहे हो तो अपने हीरोज़ की भी करो! जब ग्‍वांतानामो में दाल नहीं गलती तो मूर एक और नाटकीय कदम उठाते हैं.. सीमावर्ती जल से लगे वहीं से क्‍यूबा में प्रवेश करते हैं.. वहां जाने पर एक और मज़ेदार बात खुलती है कि वहां भी स्‍वास्‍थ्‍य सेवा मुफ्त है, और जिस एक खास दवा के लिए मरीज़ 120 डॉलर भर रहा था, वहां वह महज 6 सेंट में उपलब्‍ध है!

क्‍यों है अमरीका में मेडिकल जायंट कॉरपोरेशंस का ऐसा दबदबा, खौफ़, खुली लूट? अपने नागरिकों के साथ सरकार का दो कौड़ि‍यों का व्‍यवहार? सिर्फ़ इसीलिए कि लुटेरों से उसकी सीधी मिली-भगत है, या इसलिए भी अमरीकी सिस्‍टम अपने नागरिकों को हमेशा खौफ़ और आतंक के माहौल में रखती है? टॉनी बेन, पूर्व इंगलिश सांसद, नेशनल हेल्‍थ केयर का इतिहास किस्‍सा बताते हुए एक जगह लोकतंत्र के बारे में दिलचस्‍प टिप्‍पणी करते हैं- “I think democracy is the most revolutionary thing in the world. Far more revolutionary than socialist ideas, or anybody else's idea. But if you have power, you use it to meet the needs of your community. And this idea of choice that Capitalism talks about all the time, ‘you gotta have a choice’, Choice depends on the freedom to choose. And if you're shackled in debt, you don't have a freedom to choose. It seems that it benefits the system, If the average working person is shackled and is in debt? Yes, because people in debt become hopeless, and hopeless people don't vote. See, they always say that everyone should vote But I think, if the poor in Britain or the United States turned out and voted for people representing their interests, it would be a real democratic revolution. So they don't want it to happen."

माइकल मूर का सिको संबधी एक इंटरव्‍यू:

11/28/2007

जब वी मेट रीविसिटेड..

by Jainarain

"Jab We Met" is not about real life and real situations, but whenever the mainstream Hindi films are? Besides, anyways, films are not about real life.. they just happen to carry some illusions to the kind of reality we know.. that even JWM does. But it’s not a good film for a regular film-buff, meaning it’s loaded with patchy stuffs—bad songs, badly acted cameo scenes, shoddy tidbits here and there. Then what’s good about it? Well, going by the current mumbo-jumbo fiesta of “Sawaria” and “Om Shanti Om”, JWM is prettily written script, with lots of interesting conversation between a boy and a girl... And Kareena generally, and Shahid for the last forty minutes of the film, invest it with shiny performances, where one really stays hooked to of how they are going to handle their heart…

There are touching moments of emotional ambiguities (the way they really are in life), uncertainty, hurt and happiness the way you hardly see them in a conventional Hindi movie… thinking all this one feels good that the audience has lapped it up and the film is making money.

10/30/2007

नो स्मोकिंग



साल: २००७
भाषा: हिन्दी
लेखक/ निर्देशक: अनुराग कश्यप
रेटिंग:*
अवधि: १२० मिनट


अनुराग कश्यप की नो स्मोकिंग बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह फ़्लॉप है। मुझको और मेरे मित्र को मिलाकर आज दोपहर के शो में कुल आठ लोग थे। किसी भी फ़िल्मकार के लिए दुःखद है यह, और खासकर अनुराग के लिए तो और भी जिन्हे मैं बहुत ही काबिल फ़िल्मकार मानता हूँ। उनकी फ़िल्म ब्लैक फ़्राईडे को मैं पिछले सालों में देखी गई सबसे बेहतरीन फ़िल्म समझता हूँ। मगर नो स्मोकिंग निराशाजनक है। एक स्वर से सभी समीक्षकों ने इसे नकार दिया है और दर्शको का हाल तो पहले ही कह दिया।

कहा जा रहा है कि अनुराग की अतिरंजना है यह फ़िल्म- इनडलजेंस। सत्य है आंशिक तौर पर। मगर उच्च कला, कलाकार की अतिरंजना ही होती है। जहाँ कलाकार सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी कल्पित संसार के प्रति प्रतिबद्ध होता है, और दूसरे के लिए उसका संसार कितना सुगम होगा इसकी चिंता नहीं करता। मेरा निजी खयाल तो यह है कि अनुराग अपनी अतिरंजना के स्तर एक तल और ऊपर ले जाते तो शायद फ़िल्म बेहतर बनती। अभी यह बीच में कहीं अटक गई है। ना तो यह अपने सररियल ट्रीटमेंट के कारण दर्शकों की एक सीधी सादी कहानी सुनने की भूख को पूरा करती है और न ही यथार्थ के बहुस्तरीय स्वरूप की परतें को अपनी बुनावट में उघाड़ने का कोई प्रयत्न। उलटे एक सरल रूपक के चित्रण में नितान्त एकाश्मी बनी रहती है। जिसकी वजह से सामान्य दर्शक और कला प्रेमी दोनो ही मुतमईन नहीं होते। फ़िल्म की असफलता इस बात में नहीं है कि यह आम दर्शक के लिए कुछ ज़्यादा जटिल बन गई या वित्तीय पैमाने पर चारों खाने चित है बल्कि अपने मूल मक़सद- अपने दर्शक तक अपने संदेश का अपनी कलात्मक एकता में संप्रेषण- में नाकामयाब रही है।

अपनी असफलता के बावजूद अनुराग ने हिस्सों में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। बाबा बंगाली के पाताल-लोक का चित्रण देखने योग्य है। पर उनका आरम्भिक और आखिरी उजबेकी बरफ़ीले मैदानों का स्वप्न कोई प्रभाव नहीं छोड़ता। खैर! अब उनकी अगली फ़िल्म का इंतज़ार रहेगा।

-अभय तिवारी

जब वी मेट





भाषा: हिन्दी

साल: २००७

लेखक/निर्देशक:इम्तियाज़ अली

रेटिंग:**

उदीयमान निर्देशक इम्तियाज़ अली की पहली फ़िल्म ‘सोचा न था’ भी कुछ छोटी-मोटी कमियों के बावजूद एक ऐसी ताज़गी से भरी फ़िल्म थी जो किसी नए फ़िल्मकार से ही अपेक्षित होती है। मगर अपनी दूसरी फ़िल्म ‘जब वी मेट’ से उन्होने अपने भीतर की कलात्मक ईमानदारी का मुज़ाहिरा कर के फ़िल्म इंडस्ट्री के मठाधीशों के चूहे जैसे दिल को भयाकुल हो जाने का एक बड़ा कारण दे दिया है। क्योंकि वे हर सफल व्यक्ति की तरह वे दूसरों की सफलता की धमक से डरते हैं।

मैं उनके दिल को चूहेसम बता रहा हूँ क्योंकि करोड़पति अरबपति होने के बावजूद उनके भीतर अपनी ही बनाई किसी पिटी-पिटाई लीक छोड़कर कुछ अलग करने का साहस नहीं है। चूंकि पैसे के फेर में अपने दिल की आवाज़ सुनने का अभ्यास तो खत्म ही हो चुका है यह उनकी फ़िल्मों से समझ आता है। और दूसरों की दिलों की आवाज़ पर भरोसा करने की उदारता भी उनमें नहीं होती इसीलिए किसी नए को मौका देने के बावजूद उसकी स्वतःस्फूर्तता को लगातार एक समीकरण के अन्तर्गत दलित करते जाते हैं।

जब वी मेट एक रोमांटिक फ़िल्म है। एक लम्बी परम्परा है हमारे यहाँ रोमांटिक फ़िल्मों की। मगर पिछले सालों में मैने एक अच्छी रोमांटिक फ़िल्म कब देखी थी याद नहीं आता। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ‘कुछ कुछ होता है’ को मात्र मसाला फ़िल्में मानता हूँ, उसमें असली रोमांस नहीं है। असली रोमांस देखना हो तो जा कर देखिये जब वी मेट।

-अभय तिवारी

9/13/2007

इकिरू




साल: 1952
भाषा: जापानी
डायरेक्‍टर: अकिरा कुरोसावा
लेखक: शिनोबू हाशिमोतो, अकिरा कुरोसावा
रेटिंग: ***



काफ़ी सारे लोग इकिरू को कुरोसावा की सबसे अच्छी कृति मानते हैं। जबकि कुरोसावा की बनाई गई इकत्तीस फ़िल्मों में रोशोमॉन, मदादायो, रान, देरसू उज़ाला, कागेमुशा, योजिम्बो, स्ट्रे डॉग और सेवेन समुराई शामिल हैं- सब मास्टरपीस। अगर मैंने इनमें से कोई फ़िल्म नहीं देखी होती तो मैं विश्वास से कह देता कि इकिरू ही कुरोसावा की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म होगी। आधार यह होता कि इससे बेहतर क्या बनाएगा कोई। मगर मैंने इनमें से कुछ फ़िल्में देखीं है और मैं फ़ैसला नहीं कर सकता कि कौन सी सबसे अच्छी है।

न दिलचस्प है न मज़ेदार बस निहायत मामूली आदमी- जिसने तीस बरस तक बिलानागा सिटी हॉल में एक सेक्शन चीफ़ की नौकरी बजाई है- कहानी है इस आदमी की जिसे पता चलता है कि उसके जीवन के सिर्फ़ छै माह और बचे हैं। मृत्यु को अपने इतना करीब पा कर इस आदमी के भीतर यह एहसास जागता है कि उसने अभी तक कितना अर्थहीन जीवन जिया है या जिया ही नहीं है। पहले ही जीने की कला भूल चुका यह आदमी अब अपने बचे हुए जीवन को पूरी उमंग से जीना चाहता है लेकिन नहीं जानता कैसे!


हम देखते हैं उसे रात की रंगीनियों में ज़िन्दगी को खोजते, शराब पीते, लहराते, गिरते, वेश्याओं के बीच चिल्लाते.. मगर जीवन नहीं मिलता उसे। मिलता है एक ऐसी जगह जहाँ उसने उम्मीद न की थी.. और वहीं से मिलती है प्रेरणा अपने शेष दिनों को एक सार्थक रूप देने की।

इकिरू का यह अभिशप्त नायक आधी फ़िल्म में ही मर जाता है और उसके बाद भी फ़िल्म एक घण्टे तक जारी रहती है। आप पहले से भी ज़्यादा साँस साध कर देखते रहते हैं उसकी मृत्यु पर आयोजित शोक-सभा का कार्य-व्यापार। उस लम्बे सीक्वेन्स को देखते हुए मुझे मुहर्रम की याद हो आई है- इमाम हुसेन की शहादत को आँखों से देखने वालों का कलेजा इतना नहीं कटा होगा, जितना उनकी कहानी को साल-दर-साल सुनते हुए कटता है। ये कहानी सुनाने की ताक़त ही होती है जो पत्थर-दिल मर्दों को भी सिनेमा हॉल के भीतर आँसुओं में पिघला देती है।

इकिरू का अंग्रेज़ी नाम मिलता है- टु लिव। समझ में आता है- मगर किस तरह जिया जाय इस बात को कुरोसावा कहीं किसी संवाद में किसी किरदार से कहलाते नहीं। जीवन के प्रति उनका विचार इकिरू देखने के अनुभव के बाद स्वतः उपज आता है आप के मन में।

आज की तारीख में भी लोग इस तरह का स्क्रिप्ट डिज़ाइन अपनाने में घबराएंगे उस समय तो यह निश्चित ही क्रांतिकारी रहा होगा। कुरोसावा कहानी सुनाते-दिखाते हुए कभी हड़बड़ी में नहीं रहते। जिस पल में रहते हैं, उस में रमे रहते हैं और अपने दर्शक को भी रमा देते हैं। समय को साधने की यह कला ही उन्हे एक महान निर्देशक बना देती है।

इकिरू व्यक्ति, समाज और जीवन तीनों के भीतर एक गहन दृष्टि डालती है। ऋत्विक घटक की सुबर्णरेखा का एक महत्वपूर्ण सीक्वेन्स और ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द इकिरू के प्रभाव में बनाई गई थी।

-अभय तिवारी

9/07/2007

द ब्‍लैक डाहलिया

साल: 2006
भाषा: अंग्रेज़ी
डायरेक्‍टर: ब्रायन द पाल्‍मा
लेखक: जोश फ्रायडमान, जेम्‍स एलरॉय
रेटिंग: **

बेबात की सत्रह अदायें हिंदी फ़ि‍ल्‍मों का ही दुर्गुण हो, ऐसा नहीं.. हॉलीवुड में ये नौटंकियां ज़मीन-आसमान एक करने लगती हैं, इसलिए भी कि उनके पास फूंकने को ज़्यादा पैसा है.. लगातार मोबाइल कैमरे से मिज़ानसेन रचने में ‘स्‍कारफेस’, ‘द अनटचेबल्‍स’, ‘मिशन इम्‍पॉसिबल’ जैसी बड़ी व सफल फ़ि‍ल्‍मों के निर्देशक ब्रायन द पाल्‍मा विशेष आनन्‍द लेते हैं.. बहुत बार सीन बड़ा महत्‍वपूर्ण होने जा रहा है इसका भरम भी बनता है.. मगर फिर धीमे-धीमे आप समझने लगते हैं ये अदायें हैं.. और अदायें सिर्फ़ अदायें होती हैं..

2006 में बनी ‘द ब्‍लैक डाहलिया’ चालीस के दशक में एलिज़ाबेथ शॉर्ट नामकी एक अभिनेत्री के मर्डर की सच्‍ची हटना पर लिखे जेम्‍स एलरॉय के उपन्‍यास का फ़ि‍ल्‍मी रूपान्‍तर है.. थ्रिलर.. ब्रायन द पाल्‍मा का हमेशा का पसंदीदा जानर.. विल्‍मोस सिगमोंद की अच्‍छी सिनेमाटॉग्राफ़ी है.. बीच-बीच में अच्‍छे चुटीले वाक्‍य सुनने को मिलते हैं.. लगता है मज़ेदार पॉप फ़ि‍लॉसफ़ी की पंक्तियां बरसीं.. जोश हार्टनेट और स्‍कारलेट जोहानसन का अभिनय भी बीच-बीच में आपको लपेटता है.. मगर फिर आप थकने लगते हैं.. और राह तकते हैं कि ठीक है, भाई, अब फ़ि‍ल्‍म खत्‍म हो.. मगर होती नहीं.. प्‍याज़ की परतों की तरह, और ‘देखो, दुनिया में कितना गंध है!’ वाले अंदाज़ में एक के बाद एक जाने कैसे-कैसे उलझे भेद खुलते रहते हैं.. आपको बस यही समझ आता है देखने में अच्‍छी, मगर अंतत: सुगधिंत मूर्खता है.. हॉलीवुडियन एक्‍स्‍ट्रावैगांज़ा है, विशुद्ध इंडलजेंस है.

9/04/2007

रैटाटुई

साल: 2007
भाषा: अंग्रेज़ी
लेखक व डाइरेक्टर: ब्रेड बर्ड
अवधि: 110 मिनट
रेटिंग: ****

आसपास किसी सिनेमा में लगी हो तो बीच में कभी फुरसत लहाकर ‘रैटाटुई’ देख आइए. बेसिक इमोशंस को झिंझोड़ने, ज़रा बेहतर इंसान बना सकने की सिनेमा की ताक़त पर एक बार फिर भरोसा जगेगा (जो विशेषता आजकल आमतौर पर फ़ि‍ल्‍मों से क्रमश: छिनती गई है; सिनेमा हॉल में बैठे हुए व बाहर निकलकर आप थोड़ा और विवेक व समझदारी लेकर बाहर निकलें, ऐसा अब होता भी है तो बहुत कम होता है)..

रैटाटुई पिक्‍सार की एनिमेशन फ़ि‍ल्‍म है जो उन्‍होंने वॉल्‍ट डिज़्नी के लिए बनाई है. कहानी ये है.. कहानी रहने दीजिए, मैं कहानी सुनाने लगूंगा और आप खामख्वाह बैठके बोर होइएगा! कथासार का लब्‍बौलुवाब यह है कि समाज और दुनिया की बनाई पूर्वाग्रही तस्‍वीरों में उलझने और जकड़कर रह जाने की जगह अपनी आत्‍मा की राह पर निकलना चाहिए.. देर-सबेर उसे पहचाना जाता है.. प्रशस्ति मिलती है.. यहां संदर्भ रेमि नाक के एक चूहे की है जो अपनी बिरादरी के ‘चुराके खाओ और अपनी औकात में रहो’ के मुल्‍य की जगह अपनी खोज व सिरजने की राह पर निकलता है, व तमाम अवरोधों के पश्‍चात पाक विद्या के गढ़ में स्‍नेह व इज़्ज़त हासिल करके रहता है.

कहानी अच्‍छी चाल से आगे बढ़ती है, बच्‍चे हंसते रहते हैं तो लगता है सबका मनोरंजन हो रहा है.. मगर फिर, बीच-बीच में ढेरों ऐसे मौके बनते हैं जब फ़ि‍ल्‍म का स्‍वर अचानक एकदम ऊपर उठकर विशुद्ध सिनेमा हो जाता है, और आपके मन के गहरे कोनों में अंतरंगता व समझ की मीठी थपकियां छोड़ जाता है! काफी सारे प्रसंग हैं जब रैटाटुई का लेखन और किरदारों की डेलिवरी बड़ी उम्‍दा महसूस होती है. आंतोन इगो व लिंग्विनी की आवाज़ों के लिए क्रमश पीटर ओ’टूल और लू रोमानो का काम दाद के काबिल है.

सोचिए मत, जाकर फ़ि‍ल्‍म देख आइए.

8/25/2007

चक दे! इंडिया

साल: 2007
भाषा: हिंदी
डायरेक्‍टर: शिमित अमीन
लेखक: जयदीप साहनी
रेटिंग: ***

डिसग्रेस्‍ड हीरो की शुरुआत हमेशा फ़ि‍ल्‍म को एक अच्‍छी बिगनिंग देती है.. आगे इस तनाव का सस्‍पेंस खिंचा रहता है कि हीरो के ग्रेस की वापसी कैसे होगी.. होगी या नहीं (होगी कैसे नहीं, भई, फ़ि‍ल्‍म है, वास्‍तविक जीवन नहीं?). उस लिहाज़ से ‘चक दे! इंडिया’ की शुरुआत तनी और कसी हुई नहीं.. लिखाई में भी इकहरापन है.. मगर उसके बाद फ़ि‍ल्‍म एकदम-से अपनी चाल पकड़ लेती है.. आमतौर पर हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के घटियापे से अलग कैरेक्‍टराइज़ेशन पर ध्‍यान देती दिखती है.. चरित्रों के अंर्तलोक की जटिल परतों को बीच-बीच में मज़ेदार तरीके से पकड़ती है.. दर्शकों की दिलचस्‍पी बांधे रखती है.. और बड़ी मस्‍तानी चाल से आगे दौड़ती रहती है.. बीच-बीच में ऐसे डायलॉग आते रहते हैं कि आपको हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के लेखन को दो कौड़ी का तय करने के फ़ैसले में असुविधा हो.

सबसे मज़ेदार है चक दे! इंडिया की लड़कियां.. कोमल चौटाला, प्रीति सबरवाल, विद्या शर्मा, बिंदिया नायक ऐसी लड़कियां है जिन्‍हें सोचते और अपनी बात कहता देख खुशी होती है.. कभी-कभी आगे बढ़कर उनसे हाथ मिलाने का मन करता है.. वे ऐसी लड़कियां हैं जिन्‍हें आप शायद आगे किसी फ़ि‍ल्‍म में न देखें.. क्‍योंकि वे ख़ूबसूरत और सेक्‍सी- कोई प्रीति झिंटा या रानी मुखर्जी नहीं.. अपने पैरों व दिमाग़ पर खड़ी आज की ज़िंदा लड़कियां हैं.. चक दे! इंडिया की व्‍यावसायिक सफलता के पीछे भी शायद दर्शकों का इन लड़कियों में अपना अक़्स देख लेना ही है.

लड़कियां कमाल की हैं, शाहरूख नहीं, जैसाकि प्रैस फ़ि‍ल्‍म के बारे में लिखते-बताते हुए बार-बार बोलती रही है.. हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के ढेरों दुर्गुणों से मुक्‍त चक दे! की लिखाई, कैरेक्‍टराइज़ेशंस, अच्‍छी कास्टिंग फ़ि‍ल्‍म का अच्‍छे पहलू हैं.. तो कुछ बुरे पहलू भी हैं.. मसलन पूरी फ़ि‍ल्‍म में अनाप-शनाप बजता सलीम-सुलैमान का बैकग्राउंड स्‍कोर और वैसे ही ऊटपटांग गाने.. आप उसपर कान न दीजिए तो बाकी फ़ि‍ल्‍म फिट है.. हिट तो है ही.

ट्रेड के लिहाज़ से यह तथ्‍य भी मज़ेदार है कि यशराज की ज़्यादा महात्‍वाकांक्षी, मुख्‍यधारा के टंटों में ज़्यादा रची-बसी ‘झूम बराबर झूम’ बाज़ार से हवा हो जाती है.. और शिमित अमीन जैसे एक ‘अब तक छप्‍पन’ के ऑफ़बीट, अनफमिलियर निर्देशक की लाटरी निकल पड़ती है.

8/20/2007

जर्मनी ईयर ज़ीरो

साल: 1948
भाषा: इतालवी
डाइरेक्टर: रॉबर्तो रोस्सेलिनि
अवधि: 71 मिनट
रेटिंग: ****

रोस्सेलिनि नियो रियलिस्ट सिनेमा के बड़े हस्ताक्षर हैं. रोम ओपेन सिटी और पैसान के साथ यह फ़िल्म उनकी युद्ध त्रयी का आखिरी भाग है.

दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो चुका है. जरमनी खण्डहर बन चुका है. उस पर विजेता अलाइड फ़ोर्सेज़ काबिज़ हैं. जिनके घर नष्ट हो गए हैं वे सरकार द्वारा दूसरों के घरों में ठूँस दिए गए हैं. ऐसे ही एक छोटे से परिवार की कहानी है यह फ़िल्म. फ़िल्म की क्रूर और नंगी सच्चाई को हम 12 साल के एदमन्द की आँखों से देखते हैं. पिता बीमार हो कर खाट पकड़े हुए है. नाज़ी सेना का लड़ाका रह चुका भाई छुप कर रहा है. डरता है कि उसे डण्डित किया जाएगा. चार मुँह भरने की जिम्मेदारी बड़ी बहन पर है जो रातों को एलाईड फ़ोर्सेज़ के सैनिकों के दिल बहला कर कुछ कमाई करती है. और एदमन्द पर जो कम उमर होने पर भी कब्रें खोद कर और काला बाज़ार में घर का सामान बेच कर अपने परिवार की अस्तित्व रक्षा करना चाहता है. हालात कठिन हैं. पर एदमन्द सीखने को तैयार है. वह अपने पुराने शिक्षक के द्वारा कामुक पुचकार भी सहने को तैयार है, अगर कुछ कमाई होती हो. मगर पिता का दर्द और परिवार की भूख उस से देखी नहीं जाती.. और वह कुछ ऐसा अप्रत्याशित कर बैठता है जो शायद पूरी जर्मन जाति द्वारा अपने इतिहास को नकारने के प्रतीक तुल्य है.

बिना किसी भावुकता के फ़िल्माई यह श्याम श्वेत फ़िल्म आप को अन्तर को गहरे तक चीरती चली जाती है और कुछ मूलभूत सवाल खड़े करती है.

- अभय तिवारी

8/12/2007

ब्लू अम्ब्रेला

छतरी चोर

डाइरेक्टर: विशाल भारद्वाज
कहानी: रस्किन बांड
पटकथा: विशाल भारद्वाज,
अभिषेक चौबे, मिंटी कुंवर तेजपाल
संवाद: विशाल भारद्वाज
कैमरामैन: सचिन के क्रिश्‍न
संगीत: विशाल भारद्वाज
साल: 2007
अवधि: 90 मिनट
रेटिंग: ***

मैने विशाल भारद्वाज की सभी फ़िल्में देखी हैं.. मेरे ख्याल में ब्लू अम्ब्रेला उनकी सबसे बेहतर फ़िल्म है.. फ़िल्म की कहानी बहुत मामूली है.. एक पहाड़ी कस्बे की एक दस ग्यारह बरस की लड़की बिनिया को एक जापानी छतरी मिल जाती है.. जिसे पा कर वह उड़ती फिरती है.. मगर कस्बे के अधेड़ परचूनी नन्दू की भी नज़र छतरी पर है.. और एक दिन छतरी चोरी हो जाती है.. बिनिया को शक़ है कि छतरी नन्दू ने ली है जो पहले भी छतरी हथियाने के लिए उसे तरह तरह के प्रलोभन दे चुका है.. मगर तलाशी लेने पर भी छतरी नन्दू के पास से नहीं मिलती..बाकी फ़िल्म बिनिया और नन्दू के बीच छतरी को लेकर इसी तनाव की कहानी है..

फ़िल्म बच्चों की निश्छल दुनिया को दिखाती है.. काफ़ी हद तक और काफ़ी देर तक बच्चों की मासूम नज़र से भी दिखाती है.. इन्टरवल के बाद के एक गाने और कुछ दसेक मिनट को छोड़ दें तो फ़िल्म में एक कसाव बना रहता है.. बच्चों की उस भूली बिसरी दुनिया को मैं देखता सुनता रहा जो काफ़ी सालों से हिन्दी फ़िल्मों के लिए अनजानी है.. सत्तर के दशक में गुलज़ार ने उसे कभी छुआ था.. और अस्सी के दशक में शेखर कपूर ने.. नहीं तो बचपन का वह संसार हिन्दी फ़िल्मों में निरापद ही रहा है..

फ़िल्म हिमाचल के किसी छोटे कस्बे में फ़िल्माई गई है.. और गर्मी, बरसात और बरफ़ानी सर्दी सभी मौसम की रंगत दिखलाती है.. पहाड़ों पर आप किसी भी तरफ़ कैमरा रख कर चला दीजिये कुछ खूबसूरत क़ैद हो ही जाएगा.. लिहाज़ा फ़िल्म खूबसूरत बनी रहती है.. शायद और खूबसूरत भी हो सकती थी.. संगीत विशाल का अपना है.. और एक गीत को छोड़कर बचपन का संसार का जादू बनाये रखने में मदद करता है.. संवाद हमेशा की तरह इस फ़िल्म में भी विशाल के ही हैं.. और बहुत उम्दा हैं.. पंकज कपूर कमाल के अभिनेता है.. एक बार फिर साबित करते हैं.. दो चार अन्तराष्ट्रीय अवार्ड अगर वह बटोर लायं तो कोई हैरानी नहीं होगी..

और आखिर में कथानक जिसमें विशाल हमेशा चित हो जाते हैं.. इस बार ज़्यादा नियंत्रण में नज़र आते हैं.. कहानी में मौजूद दुनिया का माहौल बनाने में विशाल भारद्वाज का कोई जवाब नहीं.. शायद इस वक़्त के सारे फ़िल्मकारों में वे सबसे अच्छा महौल बना सकने की क्षमता रखते हैं.. मगर जब कहानी सुनाने की और ड्रामा की बारी आती है.. वे लड़खड़ा जाते हैं.. मकड़ी की बात न करें.. उसमें दूसरे मामले थे.. मक़बूल में भी यही हुआ और ओंकारा में भी.. कमाल का माहौल बनाया गया.. मध्यांतर तक फ़िल्म ऐसी जादुई समा बाँधे रहती है कि आप को लगता है कि बवाल है बाबू बवाल.. मगर इन्टरवल के बाद कहानी को आगे बढ़ाते हुए विशाल को पता नहीं क्या हो जाता.. वे ऐसे गिरते पड़ते हुए चलते हैं.. जैसे कोई ज़बरदस्ती उनसे ड्रामा करवा रहा हो.. और उस ड्रामा में उनकी कोई श्रद्धा कोई भरोसा न हो..

ब्लू अम्ब्रेला में भी ये समस्या है.. मगर इतनी कम कि मैं उस का ज़िक्र सिर्फ़ इसलिए कर पा रहा हूँ क्योंकि मैं उसे पहले ही मक़बूल और ओंकारा में चिह्नित कर चुका हूँ.. इस फ़िल्म के आखिर में नन्दू परचूनी का समाज द्वारा बहिष्कार और उसका दुख थोड़ा ज़्यादा खिँच गया लगता है..साथ ही छतरी खो जाने के बाद बिनिया की भावानात्मक जगत का प्रतीकात्मक चित्रण भी.. हो सकता है वह लड़की की अभिनय क्षमताओं की सीमाओं के चलते भी किया गया हो.. मगर बिनिया के दुख को दिखाने के और भी तरीके हो सकते थे.. जो फ़िल्म के मूड के साथ तालमेल रखते.. और बचपन की जिस मासूमियत और भारहीनता के साथ आप शेष फ़िल्म का आनन्द ले रहे होते हैं इन हिस्सों पर आ कर वह जादू टूट जाता है.. और फ़िल्म आप को भारी लगने लगती है..

मेरे इस महीन पाठ से ज़रा भी हतोत्साहित मत होइये.. मैं फिर कहता हूँ.. कि यदि हिन्दी फ़िल्मों की नकली, हिंसक और बाज़ारू दुनिया से आप तंग आ चुके हैं और हिन्दी फ़िल्म वालों के खिलाफ़ आप के मन में गहरा आक्रोश है.. तो इस फ़िल्म को ज़रूर देखिये.. हो सकता है कि फ़िल्मों की रंजकता और किसी संसार को सच्चाई से दिखा सकने की उनकी क्षमता पर फिर से भरोसा जाग जाए.. एक ईमानदार कोशिश है जिसे देख कर आनन्द लिया जाना चाहिये.. अफ़सोस यह है कि मेरे अलावा हॉल में और पन्द्रह लोग ही इस आनन्द का पान करने मौजूद थे..

- अभय तिवारी

8/06/2007

ला पेतित जेरुसलेम

डाइरेक्टर: कारिन आलबू
साल: 2005
अवधि: 96 मिनट
रेटिंग: ***

पैरिस के सबर्ब का एक निम्‍नवित्‍तीय हिस्‍सा है जिसे छोटे जेरुसलेम का नाम मिला हुआ है. टाइटल्‍स के बाद कैमरा धीमे-धीमे, पियानो के दबे संगीत के साथ, इसी दुनिया में उतरता है. छोटे, घेट्टोआइज़्ड ज्‍युइश समुदाय के रीत-रिवाज़ों से गहरे जुड़ी, अट्ठारह वर्षीय लौरा दर्शन की स्‍टूडेंट है, कांट के नक़्शे-कदम पर रोज़ एक तयशुदा रास्‍ते पर बिला नागा अपने टहल के लिए निकलती है. ट्युनिशिया से फ्रांस आकर अपनी दुनिया खड़ी करने की कोशिश में जुटे इस परिवार में धर्म और विश्‍वास का विशेष महत्‍व है. चार छोटे-छोटे बच्‍चों की मां- लौरा की बड़ी बहन मातिल्‍दे का पति आरियल समुदाय की चर्यायों में विशेष सक्रिय भी है. मां ट्युनिशिया के अपने बचपन वाले दिनों के ढेरों विश्‍वास को इतनी दूर पैरिस के सबर्ब में अब भी जिलाये रखने के तरीके जानती है. मगर परंपरा के इन भारी तानेबानों के बीच- खुद काफ़ी मज़बूत धार्मिक आस्‍था रखनेवाली लौरा की दुनिया, एक अनपेक्षित अश्‍वेत (लड़का अल्‍जीरिया से भागकर आया अश्‍वेत ग़ैरक़ानूनी आप्रवासी है) प्रेम के राह में चले आने पर अचानक कैसे तक़लीफ़देह सवालों का सामने करने का सबब बनती है, ‘ला पेतित जेरुसलेम’ इसी का एक्‍सप्‍लोरेशन है.

एक सधी, दुरुस्‍त अनाटकीय चाल में चलता अच्‍छा-प्‍यारा-सा मानवीय सिनेमेटिक दस्‍तावेज़. 2005 में फ़ि‍ल्‍म फ्रेंच सिंडिकेट ऑव सिनेमा क्रिटिक्‍स की ओर से श्रेष्‍ठ पहली फ़ि‍ल्‍म व कान फ़ि‍ल्‍म समारोह में श्रेष्‍ठ पटकथा के पुरस्‍कार से नवाजी जा चुकी है. फ़ि‍ल्‍म की निर्देशिका कारिन आलबू के मां-पिता अल्‍जीरिया से थे. ‘ला पेतित जेरुसलेम’ उनकी पहली फ़ि‍ल्‍म है. एक करियर की बहुत ही अच्‍छी शुरुआत.

8/01/2007

मिकालेंजेलो व इंगमार की विदाई..



अंतोनियोनी ने 94 वर्ष का लंबा जीवन जिया, बर्गमैन 89 के थे. अंतोनियोनी ने देर से शुरुआत की, या शुरू करने का मौका मिला (पहली फीचर ‘क्रोनाका दि उन अमोरे’ बनाते समय उनकी उम्र 38 वर्ष थी. दस साल बाद कान में ‘लावेंतुरा’(1960) के साथ अंतर्राष्‍ट्रीय प्रसिद्धी ने भी उनसे बहुत फ़ि‍ल्‍में नहीं बनवायीं, जबकि बर्गमैन आजीवन एक पैर थियेटर में फंसाये रखने के बावजूद ज्‍यादा प्रॉलिफिक थे. दोनों को अपने जीवन में ढेरों आलोचना मिली, तो साथ ही दोनों ने मानव मन के अंतर्लोक, उसकी जटिल-गुंफित दुनिया को टटोलते निजी सिनेमा को एक अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान व ऊंचाई दी. साठ व सत्‍तर के दशक के विश्‍व सिनेमा व्‍युइंग को मार्मिक बनाये रखा. अजब संयोग है दो दिन पहले, 30 जुलाई को यह दोनों ही जायंट हस्तियां एक साथ संसार से विदा हुईं. साठ के दशक के वाइब्रेंट पर्सनल सिनेमा का जैसे एक तरह से पटाक्षेप हुआ.

मिकालेंजेलो अंतोनियोनी के लिए यहां व इंगमार बर्गमैन के व्‍यक्तित्‍व व कृतित्‍व पर ज्‍यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करें.

7/14/2007

मास्क्ड एंड एनॉनिमस

डाइरेक्टर: लैरी चार्ल्स
लेखक: बॉब डिलन और लैरी चार्ल्स
संगीत: बॉब डिलन
साल: 2003
अवधि: 101 मिनट
रेटिंग: ***

टैगलाइन: Would you reach out your hand to save a drowning man if you thought he might pull you in?



सितारों की चकाचौंध को मैनेज करते, अपने बचाव में हर प्रकार का भाषाई तर्क गढ़ते और शराब पी-पी कर कंगाल हो चुके ईवेन्ट प्रोड्यूसर जॉन गुडमैन.. राजनीति की दलाली में नोट गिनने वाले टी वी चैनल मालिकों से फटकार पाने और अपने नीचे वालों पर रौब गाँठने के बीच खोखली हो चुकी टी वी एक्ज़ीक्यूटिव जेसिका लैंग.. सारे संसार से जवाबदेही करने को तैयार, मनुष्यता की गंद में लिथड़ने वाला पत्रकार जेफ़ ब्रिजेस.. संगीत की सच्चाई के सहारे दुनिया में एक सपनीले जीवन की रूमानियत लिए फ़िरते संगीत प्रेमी ल्यूक विलसन.. धैर्य, तिकड़म और बारूद तीनों के इस्तेमाल से सड़क से शीर्ष तक का सफ़र करने वाले सत्ता के लालची मिकी रूर्क.. हर बुरे प्रभाव को श्रद्धा और भक्ति से भगा देने में तत्पर भयाकुल पेनोलूप क्रूज़.. इन के अलावा वैल किल्मर, क्रिस्चिअन स्लेटर, एंजेला बेसेट, जोवान्नी रिबिसी और एड हैरिस एक साथ एक फ़िल्म में कर क्या रहे हैं?..

मुख्य भूमिका निभा रहे बॉब डिलन के इर्द-गिर्द छोटे-मोटे किरदार कर रहे हें..

बॉब अपने वास्तविक जीवन की तरह फिल्म में भी एक रॉक म्यूज़िक लीजेंड की भूमिका में हैं.. जिसका करियर सालों पहले समाप्त हो चुका है..

अभिनय के इन तमाम दिग्गजों का शानदार अभिनय.. आत्मिक आनन्द देने वाला मिज़ान-सेन.. गहरी परतदार स्क्रिप्ट.. और आपके अन्दर गहरे तक उतरते रहनेवाला संगीत.. और क्या उम्मीद करते हैं आप एक फ़िल्म से..? ख़ासतौर पर तब जब वह किसी निर्देशक की पहली फ़ि‍ल्‍म हो!.. हो सकता है आप को पहले दफ़े आनन्द तो भरपूर आये मगर हर बात समझ न आय.. तो दुबारा देखियेगा.. समझ में भी आयेगी और आनन्द भी बढ़ जाएगा..

- अभय तिवारी

7/10/2007

अव‌र लेडी ऑफ द एसैसिन्स..

डायरेक्टर: बारबेत श्रॉडर
अवधि: 101 मिनट
साल: 2000

रेटिंग: ***

ह‌म ने हिन्दुस्तानी हिंसा देखी है.. म‌द‌र इंडिया, दीवार, मेरी आवाज़ सुनो, अर्जुन‌, और प्रतिघात‌ आदि की हिंसा देखी है.. अम‌रीकी स‌माज की स्कारफेस‌, रेस‌र्वाय‌र डॉग्ज़ और नैचुरल बॉर्न किलर्स की हिंसा देखी है.. ब्रूस ली और जैकी चान ब्रांड की हिंसा भी देखी है.. म‌ग‌र अव‌र लेडी ऑफ असैसिन्स की हिंसा कुछ विशेष है.. ये हिंसा नैतिक रूप से चुक चुके, त‌बाह हो चुके स‌माज की हिंसा है.. फिल्म का खिचड़ी बालों वाला नाय‌क शुरुआत में ही मुस्‍कराते हुए घोषणा करता है कि वो अप‌ने बचपन के श‌ह‌र में म‌रने के लिए लौटा है..

प्रौढ़ वय का फे‌रनान्दो एक अभिजात्य व‌र्ग का एक जीव‌न से निराश प्रतिनिधि, भूत‌पूर्व लेख‌क व‌ वैयाक‌रण‌, सालों बाद मेदिलिन वा‌प‌स लौटा है.. मेदिलिन कोल‌म्बिया का दूस‌रा स‌ब‌से ब‌ड़ा श‌ह‌र.. और कोल‌म्बिया जो दुनिय‌ा भ‌र को कोकेन आपूर्ति क‌रने व‌ाले ड्रग कार्टेल्स का मुल्क है, और जो भूल रहे हों याद कर लें कि साहित्‍य के महापुरुष गाब्रियेल गार्सिया मार्क्‍वेज़ की जन्‍मस्‍थली भी यही देश है.. शह‌र में आतिश‌बाजियां इस बात का इशारा करती हैं कि कोकेन का कोई ब‌ड़ा क‌न्साइन‌मेंट अमेरिका स‌फ‌ल‌तापूर्व‌क प‌हुँच ग‌या..

ऎसे मित्र जो नैतिक आग्रहों की संकीर्ण‌ता से त‌माम मुद्दों प‌र राय क़ाय‌म क‌रते हैं.. उन्हे य‌ह फिल्म एक स‌माज की नैतिक तबाही की ईमान‌दार त‌स्वीर दिख‌ने के ब‌जाय स्व‌यं नैतिक त‌बाही की व‌काल‌त क‌रती दिख स‌क‌ती है.. फेरनान्‍दो के पास विरास‌त से मिला पैसा है, जीव‌न के क‌टु अनुभ‌व हैं, व्यंग्य‌तिक्त मुहाव‌रेदार भाषा है, पुरानी यादें हैं, और स‌म‌लैंगिक प्रेम के ढेरों अनुभ‌व हैं.. जी, फे‌रनान्दो एक स‌म‌लैंगिक है.. जिस‌की दिल‌च‌स्पी क‌म उम‌र के नौज‌वान ल‌ड़‌कों में है.. जिसे भ‌देस‌ ज़‌बान में ह‌मारे य‌हाँ लौंडेबाज क‌हा जाता है..

म‌ग‌र फिल्म देख‌ते हुए आप एक प‌ल को भी ना तो उसे किसी ग्लानि में लिप्त पाते हैं और न ही फिल्म के उसे प्रद‌र्शित क‌रने के न‌ज़‌रिये को.. दोनों ल‌गातार एक मान‌वीय ग‌रिमा ब‌नाये रख‌ते हैं.. फेरनान्दो को अलेक्सिस नाम के एक नौज‌वान से प्यार हो जाता है.. फेरनान्दो अलेक्सिस को अप‌ने बड़े, सूने घर लिये आता है.. शांति और ख़ामोशियों की छतरी में प्रसन्‍न रहनेवाला फेरनान्‍दो अलेक्सिस की खुशी के लिए म्यूज़िक सिस्टम और टीवी ख‌रीदकर लाता है.. सन्‍नाटे से भरे खाली घर में शोर की मौज़ूदगी का अभ्‍यस्‍त होने की कोशिश करता है..

दोनों के जीव‌न में कोई उद्देश्य न‌हीं है.. एक प‌ढ़-लिखक‌र स‌ब देख-स‌म‌झक‌र इस निहिलिस्ट अव‌स्था में प‌हुँचा है.. तो दूस‌रा उन्ही मूल्यों के बीच पला-बढ़ा है.. दोनों श‌ह‌र भ‌र में घूम‌ते हैं.. फेरनान्दो के पास ह‌र चीज़ के बारे में एक बेबाक क‌ड़‌वी राय है.. और अलेक्सिस के पास ह‌र उस व्य‌क्ति के लिए एक गोली जिससे छोटा सा भी म‌त‌भेद हो जाय‌.. पुलिस और राज्य व्य‌व‌स्था दूर-दूर त‌क क‌हीं त‌स्वीर में भी न‌हीं आती.. सब अपने लिए हैं सरकार किसी के लिए नहीं है.. साफ़-सुथरी सड़कें हैं, शहरी सरंचना हैं, गाते-बजाते लोग-से सभ्‍यता के नमूने हैं मगर यह सभ्‍यता अंदर से पोली है, खोखली है..

फेरनान्दो को अलेक्सिस‌ द्वा‌रा की जा रही इसकी और उसकी अंधाधुंध ह‌त्याओं से त‌क‌लीफ होती है.. व‌ह अलेक्सिस को स‌म‌झाता है कि, "मौत उन‌के ऊप‌र एक एह‌सान है.. जीने दो सालों को.. जीना ही उनकी सज़ा हैं..".. अलेक्सिस को बात स‌म‌झ न‌हीं आती.. ह‌त्याएं च‌ल‌ती रह‌ती हैं.. प‌र फेरनान्दो का निराशावादी न‌ज़‌रिया इसे ब‌हुत तूल न‌हीं देता.. कोई नैतिक निर्ण‌य न‌हीं क‌रता.. ह‌त्या के तुरंत बाद वे फिर हँस‌ने-बतियाने ल‌ग जाते हैं.. अलेक्सिस की जान के पीछे कुछ पुराने दुश्म‌न भी हैं.. उस पर ह‌म‌ले होते ही रह‌ते हैं.. दो बार व‌ह ब‌च जाता है.. प‌र तीस‌री बार मारा जाता है..

फेरनान्दो दुखी है.. एक दिन स‌ड़‌क प‌र उसे अलेक्सिस् जैसा ही दूस‌रा ल‌ड़‌का मिल‌ता है.. विल‌मार.. शीघ्र ही अलेक्सिस जैसा दिखता नया लड़का अलेक्सिस की ज‌ग‌ह ले लेता है.. फेरनान्दो अब उसे न‌हीं खोना चाह‌ता.. और विल‌मार को अप‌ने साथ देश छोड़‌ने के लिए राजी क‌र लेता है.. त‌ब उसे प‌ता च‌ल‌ता है कि विल‌मार ही व‌ह ल‌ड़‌का है जिस‌नें अलेक्सिस की जान ली.. फिर कोई नैतिक‌ता बीच में न‌हीं आती.. अलेक्सिस ने उस‌के भाई को मारा था.. आखिर में विल‌मार भी मारा जाता है.. शायद शहर के हाशिये पर कहीं, किसी झुग्‍गी-झोपड़ी की बदहाल गरीबी में उसका भी कोई छोटा भाई जल्‍दी ऐसे जुमले सीख जाए जिसमें अपने भाई के हत्‍यारों से बदला लेने की बात लगातार दोहराई जाती रहे.. जैसाकि अलेक्सिस की मौत के बाद उसके गरीब घर दुख बांटने पहुंचे फेरनान्दो को छोटे बच्‍चों की बतकही में हम दोहराता सुनते हैं!..

मरने की चाहत लिए अपने पुराने शहर लौटा फेरनान्दो फिल्‍म के आख़ि‍र में अभी भी ज़ि‍न्‍दा है, अकेला टहल रहा है, बरसात की झड़ी शुरू होती है, और धीमे-धीमे सड़क पर बहता, इकट्ठा होते पानी का रंग बदलकर लाल होने लगता है.. शहर व एक समूची सभ्‍यता कसाईबाड़े की बेमतलब ख़ून पीते रूपक में बदल जाती है..

एक स्त‌र प‌र फिल्म भ‌ग‌वान के खिलाफ ग‌ह‌री शिकाय‌त भी है.. फिल्म के नाम से भी यह शिकाय‌त‌ ज़ाहिर होती है.. और कई बार ह‌म फेरनान्दो को च‌र्च के सूनसान में जाकर, बैठे हुए कुछ सोच‌ता पाते हैं.. एक ज‌ग‌ह व‌ह क‌ह‌ता भी है.. "भ‌ग‌वान हार ग‌या .. शैतान जीत ग‌या.."

वास्त‌विक लोकेश‌न्स प‌र एच डी विडियो कैम‌रे से गुरिल्ला स्टाइल में शूट की फिल्म कुछ लोगों को अप‌ने लुक में किसी स्टूडेन्ट फिल्म जैसी ल‌ग स‌क‌ती है.. प‌र मेरी स‌म‌झ से व‌ही लुक इसे सिनेमा वेरिते की श्रेणी में भी ला ख‌ड़ा क‌र देता है..फिल्म में दिखाई ग‌ई स‌च्चाई के दूस‌रे प‌ह‌लू जैसे अम‌रीकी नीतियों और अम‌रीकी स‌माज की कोल‌म्बिया की इस हाल‌त में ज़िम्मेवारी, ड्रग्स का कार्य‌ व्यापार, कोल‌म्बिय‌न राज्य और स‌रकार की नाकारी के बारे में फिल्म बात न‌हीं क‌रती.. ब‌स इन स‌ब के म‌नुष्य के मान‌स प‌र प‌ड़ रहे प्रभाव को उकेरने त‌क ही अप‌ने को सीमित रख‌ती है.. म‌नुष्यता के प‌त‌न की एक निच‌ली सीढ़ी को देख‌ना कोई आन‌न्ददायी अनुभ‌व तो न‌हीं है.. ‌म‌ग‌र अप‌नी स‌म‌झ को विस्तार देने के लिए एक ज़‌रूरी अनुभ‌व ज़‌रूर है.. हाथ ल‌गे तो देखिये अव‌र लेडी ऑफ असैसिन्स‌..

-अभय तिवारी

7/09/2007

जीवन एक जादू..

निर्देशक: इमीर कुस्‍तुरिका
अवधि: 155 मिनट
साल: 2004

रेटिंग: ***

सारायेवो में पैदा हुए बोस्नियायी मुसलमान, छह फुटी ऊंची डील-डौल और खूबसूरत शख़्सीयत के मालिक इमीर कुस्‍तुरिका जब फ़ि‍ल्‍म नहीं बनाते तो अपने ‘नो स्‍मोकिंग बैंड’ के पागलपनों से भरे गानों की तैयारी में जुटे होते हैं. और फ़ि‍ल्‍म बनाते वक़्त तो पागलपन रहता ही है. नक़्शे में बेमतलब हो चुके पुराने युगोस्‍लाविया में नस्‍ल व इतिहास के चपेटे में विस्‍मयकारी जीवन जीते लोगों का शोकगीत दर्ज़ करना कुस्‍तुरिका की क़रीबन पंद्रह फ़ि‍ल्‍मों का मुख्‍य थ़ीम रहा है. समसामयिक सिनेमा में फैल्लिनियन शैली की दुनिया गढ़नेवाले कुस्‍तुरिका उन चंद भाग्‍यवान सिनेकारों में हैं जिन्‍हें कान में दो मर्तबा पुरस्‍कृत किया गया (‘व्हेन फ़ादर वॉज़ अवे ऑन बिज़नेस’, 1985 और दस वर्ष बाद ‘अंडरग्राउंड’ के लिए 1995 में). ’ज़ि‍वोत जा कुदो’ (अंग्रेज़ी में ‘लाईफ़ इज़ अ मिरैकल’) उन्‍होंने 2004 में बनाई..

बोस्निया, 1992 का समय. कहानी का नायक लुका बेलग्रेड से अपनी ऑपेरा गानेवाली और ऑपेरैटिक-सी ही पिच पर रहनेवाली बीवी और फुटबॉल के खिलाड़ी बेटे मिलॉश के संग अपने को एक गुमनाम-से गांव में स्‍थानांतरित करता है. आंखों में एक ऐसे रेलमार्ग का सपना पाले जो क्षेत्र को पर्यटकों के स्‍वर्ग में बदल डालेगी.. काम व स्‍वभावगत आशावाद की ख़ुमारी में इस बात से अनजान कि कैसे माथे पर युद्ध के गहरे बादल मंडरा रहे हैं.. और फिर जब धमाकों से गांव की दीवारें गूंजना शुरू करती हैं तो लुका के जीवन का सब उलट-पुलट जाता है.. पत्‍नी किसी हंगैरियन संगीतकार के साथ उड़ जाती है, बेटा छिनकर फ़ौज का हो जाता है.. मगर फ़ि‍ल्‍म विभीषिकाओं के यथार्थवादी डॉक्‍यूमेंटशन में नहीं फंसती.. वह तने हुए तारों में इतिहास व मनुष्‍यता के कैरिकेचर पकड़ती है.. जिस कैरिकेचर में मनुष्‍य और पशु लगातार एक-दूसरे के संग जगहों की अदला-बदली करते रहते हैं.. कभी-कभी पशुत्‍व मनुष्‍यता से ज्‍यादा कोमल व मार्मिक भी हो लेती है..

फ़ि‍ल्‍म की कहानी के विस्‍तार में जाने से बच रहा हूं.. उस पर अन्‍य जगहों काफी लिखा गया है. आपकी दिलचस्‍पी बने तो एक नज़र यहां मार सकते हैं.

7/08/2007

एलविरा मादिगन..

डायरेक्टर: बो वाइडरबर्ग
अवधि: 90 मिनट
साल: 1967

रेटिंग: ***

एक निहायत ही खूबसूरत फ़िल्म.. स्कैन्डिनेवियन समर के जादुई उजाले में फ़िल्माई हुई यह फ़िल्म दरअसल 1889 की एक सच्ची घटना पर आधारित है.. अपने सौतेले पिता के सर्कस में रस्सी पर चलने वाली लड़की का नाम था एलविरा मादिगन.. जिसे प्यार हो जाता है सिक्सटेन स्पारै नाम के एक आर्मी अफ़सर से..

फ़ौज से भागा हुआ दो बच्चों का बाप सिक्सटेन और एलविरा एक मास तक यहाँ वहाँ घूमते हैं.. जंगल.. गाँव कस्बे.. अपने प्यार को पूरी शिद्द्त से जीते.. पैसों की कमी की परवाह न करते.. और आखिर में एक ऐसी नौबत को पहुँचते जब उन्हे पेट भरने के लिए बीन बीन कर फल फूल खाने पड़े.. एक दूसरे को छोड़ कर समाज में लौट कर उसकी दी हुई सजाओं को भोगना.. इसे स्वीकार करने में असहाय ये दो प्रेमी.. आखिर में अपनी तरह का जीवन ना जी पाने की असहायता में खुद्कुशी कर लेते हैं.. सिक्सटेन, एलविरा को गोली मार के खुद भी मर जाता है.. उस वक्त सिक्सटेन 35 बरस का और अलविरा 21 बरस की थी.. डेनमार्क में मौजूद उनकी कब्र पर प्रेमियों का मेला आज भी लगता है..

कहानी जितनी दुखद है.. इस फ़िल्म का सिनेमैटिक अनुभव उतना नहीं.. डेढ़ घंटे की अवधि में अधिकतर समय आप दो प्रेमियों के प्रेम के मुक्त आकाश को देखते हैं.. खुली खूबसूरत आउटडोर सेटिंग्स में.. महसूस करते हैं उनके प्यार की गरमाहट को वार्म पेस्टल शेड्स में.. और मोज़ार्ट और अन्य मास्टर्स के संगीत और उनकी निश्छल खिलखिलाहटों में.. एक यादगार मुहब्बत का खूबसूरत सिनेमाई अनुभव..

इस फ़िल्म में एलविरा की भूमिका निभाने के लिए पिआ देगेरमार्क को कान फ़िल्म महोत्‍सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया..

-अभय तिवारी

6/02/2007

मेट्रो का दिल और दिमाग: दो

‘मेट्रो’ के किरदार भी पूरी फ़ि‍ल्‍म में पानीपूड़ी और बड़ापाव खाते नहीं, मगर भरम बना रहता है. शायद अगले किसी क्षण खा लें ऐसा. लोकल ट्रेन दिखती रहती है. भायंदर और विक्रोली नहीं मगर वाशी और पनवेल की चकमक स्‍टेशनों को भी मुख्‍यधारा की सिनेमा में ले आने के लिए अनुराग बसु की तारीफ़ होनी चाहिए. हो ही रही है. लड़कियां सिसकारी भर रही हैं- ‘ओह, माई गॉड, दे रियली डू लुक लाइक द ट्रेन्‍स वी रेगुलरली ट्रेवल इन!’ आजतक जो ट्रेन में सिर्फ़ इसीलिए चढ़ते रहे कि चलती ट्रेन से छलांग लगाकर दर्शकों को हतप्रभ कर दें (यादों की बारात), डकैतों को ढेर (शोले) या जलती ट्रेन के मुसाफिरों को बचा लें, उस धर्मेंद्र को अचानक अनुराग बसु बारह लोगों से घिरे प्‍लेटफॉर्म पर दिखाकर लड़कियों का दिल जीत लेते हैं. धर्मेंद्र को अस्‍पताल की सीढ़ि‍यों पर भी बिठा देते हैं.. धर्मेंद्र की नाटकीयता से एक कदम आगे जाकर ज़ि‍न्‍दगी में पहली दफे शाइनी आहूजा को सीधे लोकल के अंदर खड़ा कर देते हैं, बाजू में खड़ी शिल्‍पा शेट्टी हिचकोलों में कभी भी उनपर गिर पड़ेगी ऐसा लगता ही नहीं, गिर भी पड़ती है! ऐसा न हो कि ऑडियेंस अभी भी कनेक्‍ट करने से छूटी रह जाए, फ़ि‍ल्‍म के क्‍लाइमैक्‍स में इरफ़ान ख़ान घोड़ा दौड़ाते हुए जगर-मगर स्‍टेशन में घुसे आते हैं.. और घोड़ा बिचारा तो रह जाता है मगर वे खुद, लड़कियों के चेहरों पे मुस्‍की लाते हुए, लेडीज़ कंपार्टमेंट के सीधे अंदर तक दाखिल हो लेते हैं.. एक मुख्‍यधारा सिनेमा में अब इससे ज्‍यादा यथार्थ किसी को क्‍या चाहिए? फिर क्‍या वजह है कि हम पजामे से बाहर होने को इतना आतुर हो रहे हैं?..

‘मेट्रो’ के खुलते ही (अभी टाइटल्‍स शुरू भी नहीं हुए) दर्शक को मुंबईया अफरातफरी की झांकी मिलने लगती है.. रिमझिम फुहारों वाली बारिश हो रही है.. इंट्रोड्यूस कराये जा रहे किरदार इंट्रोड्यूस होते ही बताने लगते हैं कि शहर में समय की कितनी मारामारी है और वे भीगते मौसम में भी कितनी चिंतायें ढो रहे हैं और मोबाइल पर बात करने से बच नहीं पा रहे.. माने यथार्थ शुरू हो जाता है. दूसरा यथार्थ हम ये देखते हैं कि छोटे शहर का लुंपेन इरफ़ान का कैरेक्‍टर मोंटी जो मुंबई में आकर एक ठीक-ठाक नौकरी में सेट हो गया है, कैसे उसकी लुंपेनई गई नहीं है और वह रिक्‍शे में बैठा आजू-बाजू गुजरते दूसरी रिक्‍शा सवार बालाओं की पिंडलियों व जांघों के गुदाज़पने की झांकियां लेता सुखी हो रहा है.. बारिश में छाते के नीचे इंतज़ार करते हम एक और नौजवान को देखते हैं जो अपनी ऑफिस की सहकर्मी कन्‍या की संगत की खातिर अपना छाता फेंक हंसता हुआ उसके छाते में घुस लेता है.. फिर तीन (हमारे एक मित्र के शब्‍दों में) वनमानुष किस्‍म के रॉकर्स हैं जो छूटते ही कभी भी गिटार टिनटिनाने और झुरझुरी जगाते, देह हिलाते अपने समय और शहर को परिभाषित करते हिनहिनाने लगते हैं..

फिर धीरे-धीरे खुलता है कि जिसकी छतरी के नीचे घुसकर नौजवान लड़की का दिल जीतना चाहता था वह लड़की दरअसल उसके बॉस के साथ भाग-भागकर सोती रहती है.. और चूंकि नौजवान लड़की के साथ-साथ शहर भी जीतने आया है (मुंबई में मॉर्निंग वॉक करने नहीं, जैसा वह खुद कहता है) तो लड़की के बॉस के साथ सोने के लिए बॉस को अपने फ्लैट की चाभी भी वही मुहैय्या करवाता है.. चूंकि वह जल्‍द तरक्‍की का भूखा है, लगता है वह ऑफिस के हर चौथे आदमी को किसी न किसी के साथ अपने फ्लैट में सुलवाने की दलाली कर रहा है.. तो एक सिलसिला-सा बन जाता है.. सब कहीं न कहीं कुछ पाना चाह रहे हैं.. ज्‍यादातर लड़कियों के साथ सोना चाह रहे हैं.. सो भी ले रहे हैं मगर सुखी नहीं हो पा रहे हैं.. बेचैनी का अजीब मुंबईया यथार्थवादी तनाव तना-तना-सा बना रहता है.. और बीच-बीच में वनमानुष कूद-कूदकर इस महानगर में ‘ज़ि‍न्‍दगी कैसी है पहेली, हाय..’ की सामयिक व्‍याख्‍या करते रहते हैं.. तो ये है अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ का दिल.. उससे ज्‍यादा कुछ नहीं है.. विशुद्ध चिरकुटई और एम्‍बैरेसिंग नंगई है.. कुशवाहा कांत व प्रेम वाजपेयी छाप डायलाग और एकता कपूर टाइप तड़फड़ाहटें हैं.. यथार्थ नहीं है. हवा में लटके वाशी या पनवेल या पता नहीं किस दुनिया के लोग हैं, यथार्थ जो है वह तेल लेने गई है.. और ले के पूरी फ़ि‍ल्‍म में आप सोचते रहते हैं अब शायद लौट आए, लौटती नहीं है!..

यह तो हुआ अनुराग बसु का दिल.. यथार्थवादी दिमाग कहां है? दिमाग इसमें है कि बिली वाइल्‍डर की एक पुरानी काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍म ‘द अपार्टमेंट’ और हाल के वर्षों की एक अंग्रेजी फ़ि‍ल्‍म ‘लव एक्‍चुअली’ से वह चांप-चांपकर चोरी करती है.. और फिर चोरी ही नहीं करती, उस चोरी को दो कौड़ी के टेलीविज़न सोप में बदलकर यह भी अपेक्षा करने लगती है कि आप उसकी बौद्धिकता पर वाह-वाह भी करें..

ढाई घंटे की फ़ि‍ल्‍म में कुल जमा सात मिनट से अलग बंबई का कोई यथार्थ नहीं है.. टूरिस्टिक पोस्‍टकार्ड्स हैं.. जिसे देखकर ढेरों भले बेवकूफ़ भागे-भागे मुंबई चले आएंगे.. और यहां आने के बाद असली शहर देखकर वे अपना सिर और अनुराग बसु दोनों को पीटने के लिए मचलने लगेंगे!..

एक बात यहां और साफ़ करते चलें.. मैं कोई पैरेलल सिनेमा या प्रकाश झा टाइप रियलिज़्म का यहां केस लेकर नहीं बैठा हूं.. और न ही सिनेमा यथार्थ की कोई डॉक्‍यूमेंट्री होती या होनी चाहिए.. मगर सिनेमा के मार्मिक होने का इतना तकाज़ा ज़रूर बनता है कि अपनी कथा और शिल्‍प के मनोरंजन से वह यथार्थ के परतदार पेचीदेपने के बारे में आपकी समझ खोले.. आपके साथ एक रोचक संवाद स्‍थापित करे.. ‘मेट्रो’ ऐसा कुछ भी नहीं करती.. दो कौड़ीयों के स्‍तर पर भी नहीं करती.

दरअसल बदलते समय में पुराने बंबईया फ़ार्मूलों के चुक जाने के बाद अब यथार्थ को दिखाने का भी यह जैसे कोई नया फ़ामूर्ला बन गया है.. जिसका यथार्थ कुछ वैसा और उतना ही है जैसे कोई रामलाल या मिश्रीचंद बिसमिल्‍ला ख़ान से शहनाई की शिक्षा लेकर ट्रंपेट से हिमेश रेशमिया की धुन ठेलने लगें. वह संगीत की अदा होगी; संगीत तो नहीं ही होगा. अनुराग बसु की ‘मेट्रो’ भी अदाओं से गजबजाई हुई है, जो संगीत है वह सिर्फ़ वनमानुषी शोर है.

मेट्रो का दिल और दिमाग: एक

कुछेक वर्ष पहले एक फ़ि‍ल्‍म आई थी ‘दिल चाहता है’. उसे देखकर बहुत लोग लुट और लोट गए थे. ‘दिल चाहता है’ की चर्चा होते ही भाई लोग उस पर ‘मुख्‍यधारा में यथार्थ का ताज़ा झोंका’ और बॉलीवुड का नया ‘कूल’ सिनेमा जैसे तमगे चढ़ाने को मचलने लगते. पता नहीं इन समझदारों के बीच फ़रहान अख़्तर पर बातचीत में अब उस कूलनेस को याद किया जाता है या नहीं.. अपने यहां प्रेस और मीडिया का गंवारपना व बौद्धिक दिवालियेपन के सबसे बेजोड़ नमूने उसके सिनेमा संबंधी कवरेज़ में ही अपनी समूची चिरकुटई में ज़ाहिर होते हैं. एक माई का लाल आगे बढ़कर सवाल नहीं करता कि ‘दिल चाहता है’ में यथार्थ का वह कैसा ताज़ा झोंका था जो मुंबईया जीवन की परतों को सचमुच किसी करण जौहर और यश चोपड़ा से अलग तरीके से खोलकर सामने रख रहा था! चिरकुटइयां वही थीं लेकिन पेश करने का तरीका ज़रा ज्‍यादा ‘कूल’ था? लेकिन ‘दिल चाहता है’ के इन तीन तिलंगों का जीवन किस तरह भला यशराज फ़ि‍ल्‍म्‍स व धर्मा प्रॉडक्‍शंस के उन नवाबज़ादों से किसी भी तरह अलग था जो न्‍यू जर्सी, न्‍यूऑर्क, लंदन जैसी जगहों में बेसबॉल कैप पहने ‘कूल ड्यूड’ जैसे जुमले फेंकते रहते हैं? सिर्फ़ इसीलिए कि वह न्‍यूऑक नहीं मुंबई के लड़कों की ज़ि‍न्‍दगी की झांकी पेश करने की बातें कर रहा था? मुंबई के किस कॉलेज़ से निकलते हैं ऐसी धजवाले छोकरे और दिनभर इधर-उधर बीयर ढरकाते, ‘ओह, हाऊ कूल’, बने रहते हैं?.. पोद्दार कॉलेज में पढ़ते हैं या भवंस में? कि मीठीभाई.. एलफिंस्‍टन में? ट्रेन में कभी सफ़र करते हैं या नहीं? सड़क पर ठहरकर कभी बड़ा पाव खाया होता है इन कूल ड्यूड्स ने?

बात खिंचती चली जाएगी और इन दो कौड़ी के कूल ड्यूड्स के साथ हम मुंबई के यथार्थ के किसी भी डिसेंट रिप्रेज़ेंटेशन तक नहीं पहुंचेंगे. क्‍योंकि कूलनेस के एक डेकोरेटिव ‘प्रेज़ेंटेशन’ से ज्‍यादा वास्‍तविकता का कोई तत्‍व उसमें है ही नहीं..

इन सवालों पर मीडिया की बौद्धिकता भी उतनी ही दो कौड़ी की है जितनी दो कौड़ी के अपने ये कूल ड्यूड्स.. और उनके सिरजनहार. एक फ़ि‍ल्‍म का प्रशंसात्‍मक कोरस खतम नहीं होता कि दूसरे की शान में दायें से बायें दुदुंभि बजने लगती है. ‘सरकार’ अनोखी, ‘ब्‍लैक’ गजब.. और पता नहीं क्‍या-क्‍या झंडिया चिपकती और तमगे बंटते रहते हैं! कोई इन भले आदमियों से पूछता नहीं कि हिंदी सिनेमा में अनूठेपन का ऐसा ही इतिहास रचा जा रहा है तो भला ऐसा क्‍यों होता है कि किसी भी बड़े अंतर्राष्‍ट्रीय फ़ि‍ल्‍मोत्‍सव की प्रतियोगिता श्रेणी में छोटे-छोटे मुल्‍कों का प्रतिनिधित्‍व तो रहता है लेकिन भारतीय फ़ि‍ल्‍मों को विरले ही चयन के क़ाबिल समझा जाता है? इसलिए नहीं कि भारतीय सिनेमा से अंतर्राष्‍ट्रीय फेस्टिवल्‍स का कोई तक़रारी संबंध है. नहीं. इसलिए कि सिनेमा के अंतर्राष्‍ट्रीय यथार्थ में भारतीय मुख्‍यधारा- या कोई भी धारा- कूलनेस को मैनिफैक्‍चर करने की अदाएं भले सीख गई हो, यथार्थ से सिनेमाई समीकरण कैसे बनाए, इसकी तमीज़ उसे अभी भी बनानी सीखनी है!

मगर ‘मेट्रो’ की बात करते हुए इतनी सारी पहले व पीछे की चर्चा क्‍यों? इसीलिए कि ढेरों समझदार बंधुगण- अख़बारों के अंदर व अख़बारों से बाहर घरों में चाय पीते हुए दोस्‍तों के बीच भी- अचानक फिर से अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर बात करते हुए मुंबई के यथार्थ के डिपिक्‍शन की भावनात्‍मक, रोमानी अदाएं देते दिख रहे हैं..

आज इतना ही.. अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर विस्‍तार से कल लौटेंगे.

5/24/2007

द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्‍सी

साइंस फ़ि‍क्‍शन के बारे में मैं उतना ही जानता हूं जितना करीना कपूर नॉम चॉम्‍स्‍की के बारे में जानती होंगी. डगलस एडम्‍स का नाम भर सुना था, ‘द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्‍सी’ से उनके असोसियेशन की ख़बर नहीं थी. बहरहाल, इसे भी संयोग ही कहेंगे कि फ़ि‍ल्‍म हत्‍थे चढ़ी तो हमने सोचा एक नज़र मार लेते हैं. आख़ि‍र कुछ तो बात होगी कि इतने समय से ‘हिचहाइकर्स..’ शीर्षक हवा में है. फ़ि‍ल्‍म ख़राब हुई तो दस मिनट बाद खेला खत्‍म करके सब भूल-भुला जाएंगे. तो भई, हमने फ़ि‍ल्‍म देखी. और दस मिनट नहीं पूरी देखी. और चुटीले संवादों और डिज़ाइन की जटिलता में रस लेकर देखी. डगलस एडम्‍स की निहायत लोकप्रिय किताब व सत्‍तर के दशक के मशहूर बीबीसी रेडियो शो पर आधारित फ़ि‍ल्‍म को एडम्‍स के फैन्‍स ने शायद बहुत पसंद नहीं किया, मगर हमने जो किताब पढ़ी नहीं और फ़ि‍ल्‍म को फ़ि‍ल्‍म की ही तरह देख रहे थे, सचमुच आनंदित हुए. गार्थ जेनिंग्स‍ की यह पहली फ़ि‍ल्‍म (2005) है. और लहे तो एक नज़र मारने से आप भी मत चूकियेगा.

5/23/2007

यूगोस्‍लावियन अनमोल हीरा

अलेकसांद्र पेत्रोविच की 'आई इवन मेट हैप्‍पी जिप्‍सीस', 1967

अच्‍छी फ़ि‍ल्‍म क्‍या होती है? मुझे मालूम नहीं पारंपरिक समीक्षा इस सवाल पर क्‍या नज़रिया रखती है, मगर निजी तौर पर, मेरे लिए फ़ि‍ल्‍म- कहानी रेयरली होती है.. फ़ि‍ल्‍म देखते हुए अब ज्‍यादातर मैं फ़ि‍ल्‍म के प्‍याज की खोज में रहता हूं.. जितनी ज़्यादा फ़ि‍ल्‍म की बुनावट में परतें (लेयरिंग), उतना ही ज़्यादा व्‍यूइंग का आनंद! मतलब ये कि कहानी तो भइया, जो हो सो हो, देर-सबेर वह सामने आएगी ही, हमारी चिंता रहती है कि प्रोजेक्‍शन के शुरू होते ही बिम्‍बों व ध्‍वनियों की दुनिया कैसी खड़ी हो रही है.. फॉरग्राउंड में जो दिख रहा है, उसके पृष्‍ठ में क्‍या है, साउंड और इमेज़ की कटिंग कैसी हो रही है.. बैकग्राउंड स्‍कोर विज़ुअल्‍स को सिर्फ़ सपोर्ट कर रहा है, या एक दूसरे तल पर चलते हुए नैरेटिव को ज़्यादा गहरे अर्थ दे रहा है?

शायद फ़ि‍ल्‍म जैसे लोकप्रिय माध्‍यम में ये थोड़ी अभिजात किस्‍म की इच्‍छाओं, अपेक्षाओं का इम्‍पोज़ि‍शन है. खरी उतरना तो दूर, ज़्यादातर फ़ि‍ल्‍में ऐसी अपेक्षाओं के आसपास भी नहीं फटकतीं. इस लिहाज़ से पिछले दिनों अपने पूर्ण अज्ञान में- मात्र जिज्ञासावश, निरे संयोग से- 1967 में बनी एक यूगोस्‍लावी फ़ि‍ल्‍म- ‘स्‍कूपलाजी पेरया’ (अंग्रेजी में ‘आई इवन मेट हैप्‍पी जिप्‍सीस’ देखना अच्‍छा रोमांचकारी अनुभव साबित हुआ. फ़ि‍ल्‍म देख चुकने के बाद हमने डायरेक्‍टर अलेकसांद्र पेत्रोविच और फ़ि‍ल्‍म की खोजबीन की तब पता चला वह 1967 में ऑस्‍कर की सर्वश्रेष्‍ट विदेशी फ़ि‍ल्‍मों वाले दौड़ में भी थी, और ज़ि‍री मेंज़ेल की ‘क्‍लोज़ली गार्डेड ट्रेन्‍स’ जैसी एक दूसरी अनोखी फ़ि‍ल्‍म की वजह से इनाम पाते-पाते रह गई (अलबत्‍ता कान में स्‍पेशल ज़ूरी अवार्ड से नवाजी गई).

दरअसल 1960 के यूगोस्‍लावी सिनेमा की नई धारा को खड़ा करनेवाले लोगों में ज़ि‍वोइन पावलोविच और दुसान माकायेव के साथ-साथ अलेकसांद्र पेत्रोविच की मुख्‍य भूमिका रही. 1961 की बनी उनकी ‘दो’ ने नई धारा का रास्‍ता खोला, और 1965 की ‘तीन’, बताते हैं- ने उस आंदोलन की सशक्‍त अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान बनवाई.

‘स्‍कूपलाजी पेरया’ पारंपरिक स्‍तर पर कोई व्‍यवस्थित कहानी नहीं कहती. कुछ चरित्रों के साथ घूमते हुए हमें आधुनिक, औद्योगिक समाज में जिप्सियों की अपनी जगह बनाने, तलाशने की विडंबनाओं का धीमे-धीमे एक मार्मिक कोलाज़ बनती चलती है. जिसमें समाज, जीवन, इतिहास, प्रेम, आधुनिकता सब आपस में इस तरह घुलेमिले हैं कि एक को दूसरे से अलग करके देखना लगभग असंभव-सा बना रहता है. निजी तौर पर मेरे लिए फ़ि‍ल्‍म का प्रभाव अभी तक इतना मार्मिक है (सोचिए, ऐसे लगता है जैसे फेल्लिनी, थियो आंगेलोपोलुस, इमिर कुस्‍तुरिका, ऑल्‍टमैन सबको एक साथ और खामख्‍वाह की किसी भी नाटकीयता से मुक्‍त, वास्‍तविकता के ज्यादा नज़दीकी में देख रहे हैं!) फ़ि‍ल्‍म व अलेकसांद्र पेत्रोविच पर थोड़ी और समझ के लिए यहां नज़र डालें.

5/17/2007

गरीबी और भय के मेहनतनामे

सिलेमा में इन दिनों बड़ा सन्‍नाटा है. इसलिए नहीं है कि हमने फ़ि‍ल्‍में देखनी बंद कर दी हैं (भगवान न कराये ऐसा दिन आए! यह तो वही बात होगी कि हिंदीभाषी छोटे शहर के छोटे कवि को कह दिया जाए कि भइया, तुम कल से कविता पढ़ना बंद कर दो, और लिखना तो बंद कर ही दो! कैसी हदबद हालत हो जाएगी बिचारे की. तो हम इस उबलती गर्मी में अपनी हदबद हालत करवाना नहीं चाहते. हम फ़ि‍ल्‍म देख रहे हैं, और पहले से ज्‍यादा नहीं तो पहले से कम भी नहीं देख रहे..). दरअसल हमारे इस रेकॅर्ड को बजाने के पीछे की कहानी यह है कि एक साथी सिनेमाई ब्‍लॉगर ने आशंका ज़ाहिर की कि शायद अज़दक पर कथा और संस्‍मरण बांचने के चक्‍कर में हम सिनेमा भूल गए हैं. साथी, हम सिनेमा भूल जाएंगे तो फिर और क्‍या हमसे याद रखते बनेगा, इसका हमें ठीक-ठीक अंदाज़ा नहीं है. तो सिनेमा तो हम नहीं ही भूले हैं. बस दिक्‍कत सिर्फ़ यह है कि जो फ़ि‍ल्‍में हम देखते रहे हैं (आप कहेंगे कहां-कहां की अटरम-पटरम में हम दबे-धंसे रहते हैं!), उसके बारे में लगा नहीं कि बहुतों की दिलचस्‍पी बनेगी. उनपर हम कुछ लिखें तो शायद ज्ञानदत्‍त जी की प्रवीण लेखनी उसको अपने ज्ञानी ऐनक से जांचकर ‘गुरुवाई’ ठेलने का हमपर नया इल्‍ज़ाम मढ़ दे! क्‍या फ़ायदा ज्ञानी जी को, या किसी को भी दुखी करने का. और चूंकि चाहकर भी हम ‘गुड ब्‍वॉय बैड ब्‍वॉय’, ‘तारारमपम’ और ‘मेट्रो’ के मोह में उलझकर सिनेमा का रुख कर नहीं सके, सिलेमा में चुपाये रहना ही हमें सही नीति लगी.

काम की बताने लायक बात निकलेगी तो हम पाती लिखेंगे. फ़ि‍लहाल के लिए उन थोड़ी फ़ि‍ल्‍मों की फेहरिस्‍त जिनकी गंगा में डुबकी मारते हुए हम यह गर्मी झेलते रहे हैं:

1. द जैकेल ऑव नाहुयेलतोरो (मिगुएल ‍लितिन, चिले, 1969). लितिन का शुरुआती व बेहतरीन काम. डॉक्‍यूमेंट्री व फ़ीचर स्‍टाइल का एनर्जेटिक मिक्‍स. झारखंड, छत्‍तीसगढ़ व अन्‍य आदिवासी इलाकों में अगर कोई सार्थक, सामाजिक सिनेमाई आंदोलन होता तो यह फि‍ल्‍म वहां के लिए अच्‍छे उदाहरण का काम करती. भूखमरी में दर-दर की ठोकरें खा रहा फ़ि‍ल्‍म का नायक सहारा पाये एक परिवार की स्‍त्री और चार बच्‍चों की पीट-पीटकर इसलिए हत्‍या कर देता है क्‍योंकि रोज़ की यातना से उन्‍हें छुटकारा दिलाने की यही सूरत उसे दिखती व समझ आती है. उसकी गिरफ़्तारी पर मध्‍यवर्गीय समाज चीख-चीखकर उसे हत्‍यारा घोषित करता है. पुलिस जेल में उसके मानसिक ‘दिवालियेपन’ का सुधार करके उसे आदमी में बदलती है, और फिर जब वह सचमुच एक नए आदमी में तब्‍दील हो चुकता है, फांसी लगाके उसकी जान ले लेती है!
2. हाराकिरि (मसाकी कोबायासी, जापान, 1962). रोमांचक, लौमहर्षक, बड़े परदे पर देखा जानेवाला सनसनीखेज़ काला-सफ़ेद सिनेमा. सत्रहवीं शताब्‍दी के मध्‍य की गरीबी में समुराइ मुल्‍यों की निर्मम समीक्षा के बहाने समाजिक आस्‍थाओं की चीरफाड़.
3. वेजेस ऑव फीयर (हेनरी-जॉर्ज़ क्‍लूज़ो, फ्रांस, 1952). बेमिसाल, अद्भुत. क्‍लूज़ो ने ढेरों फ़ि‍ल्‍में नहीं बनाईं, मगर जितनी बनाईं वह थ्रिलर फ़ि‍ल्‍मों के तनाव को एक नई परिभाषा देती हैं. यह फ़ि‍ल्‍म उसका सर्वोत्‍तम उदाहरण है.
4. ला रप्‍चर (क्‍लॉद शाब्रोल, फ्रांस, 1970). हिचकॉकियन टेंशन का पैरिसियन इंटरप्रिटेशन. शाब्रोल के सिनेमा का अच्‍छा उदाहरण.
5. कार्ल गुस्‍ताव युंग: द मिस्‍ट्री ऑव द ड्रीम्‍स (डॉक्‍यूमेंट्री, घंटे-घंटे भर के तीन भागों में). जिनकी युंग और युंग के काम में दिलचस्‍पी है, उनकी खातिर अच्‍छी खुराक.

4/30/2007

एक असुविधाजनक सच

करीब डेढ़ महीने से मुंबई में जैसी हवा है वह सुहानी बयार नहीं, गर्मी ही थी; मगर इधर चार दिनों से सुबह सात बजे से दोपहर चार तक बाहर खुले में जो आलम है, वह विस्‍मयकारी है. महसूस होता है मानो देह के रोंवों से लेकर उंगलियों के पोर, नाखून सब कहीं गर्मी चढ़ रही हो! मुंबई निवासी उमस और गर्मी से अपरिचित नहीं, लेकिन मैदानी प्रताप वाली ऐसी बम-बम हवायें, मेरी अपनी स्‍मृति में, शहर में एक नया (झुलसाऊ) तत्‍व हैं. आखिर इस मारक गर्मी का राज़ क्‍या है? सड़कों पर गा‍ड़ि‍यों और उनके धुंए की उपस्थिति बढ़ी है? कि नये बहुमंजिली कंस्‍ट्रक्‍शंस ने हवाओं का आना-जाना छेंक रखा है? इस तरह से और कितने वर्ष अपना जीवन खिंचेगी यह शहर? खिंच पायेगी? या यह महज इस शहर भर की कहानी नहीं, सब तरफ मौसमों में यह एक नया रंग आना शुरु हुआ है? मुख्‍य मुंबई में तो कम से कम बिजली बने रहने की गनीमत है, जहां लोगों को पंखे के नीचे होने की भी सहूलियत नहीं, वहां गर्मी की यह मार कैसे बर्दाश्‍त की जा रही है! एसी के आराम में बैठे हमारे नीति नियंताओं के पास इन झुलसाऊ सवालों का कोई जवाब है या नहीं?..

पिछले अमरीकी आम चुनाव के डेमोक्रेटिक प्रत्‍याशी अल गोर ने इन सवालों (जलवायु परिवर्तन) पर खासी चिंता की है, अपने ढंग से दुनिया के आगे समाधान भी प्रस्‍तावित किये हैं, और यह सब डेविस गगेनहाइम ने सौ मिनट की एक डॉक्‍यूमेंट्री में कैद किया है जिसका नाम है: एन इनकन्विनियेंट ट्रूथ (पिछले ऑस्‍कर में यही सर्वश्रेष्‍ट डॉक्‍यूमेंट्री के बतौर पुरस्‍कृत हुई थी). यह फिल्‍म इन दिनों भारतीय महानगरों के कुछ सिनेमाघरों में दिखाई जा रही है. पिछले ढाई वर्षों में इस फिल्‍म की बदौलत ग्‍लोबल वॉर्मिंग के संबंध में पर्यावरणवादियों की चिंता को काफी लोकप्रियता मिली है, और बहुत धीमी चाल से ही सही, ग्‍लोबल वॉर्मिंग के विषय ने मुख्‍यधारा की चिंताओं में अपनी जगह बनानी शुरु की है. आप के लिए संभव हो तो आप ही नहीं, दस-बीस जितने और लोगों तक इस फिल्‍म का प्रचार ले जा सकते हों, ले जावें. फिल्‍म देखें और दिखावें.

4/28/2007

चमत्‍कृत करनेवाला बैनर और इटली के एरमान्‍नो ओल्‍मी

जिस तरह अंगूठे और तर्जनी के बीच बच्‍चे का गाल दबा के मां पहली दफा स्‍कूल जा रहे लाडले के तेल चुपड़े केश संवारती है, फिर गर्व से आश्‍वस्‍त होकर उसे बाहर पठाती है; हम भी कुछ उसी अदा में कल देर रात अपने ब्‍लॉग के बैनर से छेड़छाड़ करते रहे. और बेचारे बच्‍चे के साथ हुई हिंसा वाले अंदाज़ में ही फेल्लिनी की व फेल्लिनी संबंधी दस तस्‍वीरों के जगर-मगर को ब्‍लॉग के माथे चिपका कर जब आत्‍मा से ‘ये क्‍या कर डाला’ का धुआं उठने लगा- तो थक-हार मानकर आश्‍वस्‍त हो लिये, और इसके पहले कि उसे और लबेरते, सेव करके बाहरी संसार में पठा दिया!

गुगल ने बैनर के साथ फोटो नत्‍थी करने का जो नया ऑप्‍शन दे दिया है, तो उस ऑप्‍शन को टटोलने के बाद अब हम उसकी तबतक चीरफाड़ करेंगे जबतक फोटोशॉप और हमारी आंखें फट कर बाहर न आ जायें! फेल्लिनी कब्र से कराहते हुए बाहर न निकल आयें- कि भैया, बहुत करम कर लिया, अब हमारी जान बख्‍शो! फेल्लिनी की फिल्‍म होती तो शायद ऐसा कुछ सचमुच घट भी जाता, मगर जानता हूं वास्‍तविक लोक में फेल्लिनी की जान का जो होना था 1993 में हो चुका है, वह जहां हैं वहीं पड़े रहेंगे और मुझको तबतक चैन नहीं पड़ेगा जब तक कंप्‍यूटर के फिल्‍मी फोल्‍डर को आमूल-चूल एक्‍शॉस्‍ट न कर लूं! खलिहागिरी में ‘क्रियेटिव एंगेजमेंट’ का बहाना और मसाला दोनों हो गया, और कम स कम सामग्री के स्‍तर पर न सही (जैसाकि पीछे हफ्ते भर से हो रहा है), बैनर के स्‍तर पर सिलेमा में आपको नवीनता मिलेगी, इसका वादा है!

आज वर्षों बाद तिबारा एरमान्‍नो ओल्‍मी की ‘द ट्री ऑफ वुडेन क्‍लॉग्‍स’ (अंग्रेजी में शीर्षक) देखी. लगभग तीस वर्ष पहले बनाई बहुत ही विशिष्‍ट फिल्‍म है. अनुभव की महक से अभी तक गमक रहा हूं. आनेवाले दिनों में जल्‍दी ही उसकी चर्चा पर लौटूंगा. तबतक आप फेल्लिनी का बैनर देखकर चकित रहिये, और चकित रहते-रहते आजिज आने लगें तो थक कर हमारी तारीफ़ भी कर डालिये.

4/25/2007

अकड़ अकड़ के बिगड़ बिगड़ के

समाज, देश, समय, विश्‍व, ब्‍लॉग को तोड़ने की बहुआयामी साजिशें चल रही हैं, उस लिहाज से पवित्र पापी जी की यह रचना अब भी उतना ही मौजूं हैं जितनी जब 1959 में लिखी गई थी तब थी.

और इसका असर तब के समाज पर भी इतना असरकारी था कि कोई जनाब नाम बदलकर कैफ़ी आज़मी के नाम से शायर हो गए और उन्‍होंने चुपके से इस रचना को सचिन दा की जेब के रास्‍ते से क़ागज के फूल जैसी एक फ़ि‍ल्‍म में डाल दिया था, पर उपयुक्‍त असर पैदा करने में असफल रहे थे. आप स्‍कॉच की तरह धीरे-धीरे आनंद लीजिये; असर पैदा होगा, धीरे-धीरे...


एक दो तीन चार और पांच
छे और सात, आठ और नौ
एक जगह सब रहते थे
झगड़े पर थे उनमें सौ

नौ ने कहा आठ क्‍या
छोटे का ठाठ क्‍या
आठ हंसा सात पे
तुफ़ तेरी ज़ात पे
सात ये बोला छे से
तू हंसा कैसे

अकड़ अकड़ के बिगड़ बिगड़ के
झगड़ा झंझट खिच-खिच करके
सबने सबको फटकारा
रह गया सबका मुंह तक के
सबसे छोटा एक बेचारा
एक दो तीन...

एक बेचारा तनहा-तनहा
फिरता था आवारा-सा
सिफ़र मिला उसे रस्‍ते में
बेक़ीमत आवारा-सा
एक ने पूछा तुम हो कौन
उसने कहा मैं सिर्फ़ सिफ़र
एक ने सोचा मैं भी क्‍या
सबसे छोटा और कमतर
मिल गए दोनों बन गए दस
चमका क़ि‍स्‍मत का तारा
एक दो तीन...

एक को जब दस बनते देखा
सबने सिफ़र को रोका-टोका
नौ ने प्‍यार से आंख मिलाई
आठ ने सौ-सौ बात बनाई
सात ने रंगीं जाल बिछाए
छे ने सौ तूफ़ान उठाए
घटा-घटा के मिटा-मिटा के
सिफ़र को एक से दूर हटा के
छीना एक दूजे का सहारा
एक बेचारा तन्‍हा तन्‍हा
फिरने लगा फिर से आवारा...

4/10/2007

कविवर श्री पवित्र जी पापी और नये रास्‍ते

अभी अभी यह तथ्‍य प्रकाश में आया है कि मीडिया में चंद फोड़क व फाड़क तत्‍व पापी जी की पवित्र रचना को साहिर(?) का लिखा बताकर कविता (इलाहाबाद की मुट्ठीगंज वाली नहीं हिंदी साहित्‍य वाली) को ही नहीं जनता को भी गलतफ़हमी का शिकार बना रहे हैं. क्‍या जनता पहले से ही पर्याप्‍त गलतफ़हमी नहीं पाले हुए है? कि आप उसे गलतफ़हमियों का एक्‍स्‍ट्रा बैगेज दे रहे हो? आप मीडिया होकर क्‍यों मंडी (हिमाचल वाली नहीं बाज़ारवाली) की तरह बिहेव कर रहे हो? इस देश में जिम्‍मेदारी का भाव क्‍या जवाहरलाल के उठने के साथ उठ गया है? हद है मीडिया वालो!

ख़ैर, जनता-जनार्दन, अपने अशिक्षित, अर्द्धशिक्षित कानों से आप पापी जी की महान रचना स्‍वयं सुनें और तय करें क्‍यों भला साहिर जैसा सतही कवि ऐसे दिलफ़रेब रचना का क्रेडिट (आईसीसीआई बैंक का नहीं काव्‍य रचने का क्रेडिट) हड़पना चाहता है?

तो, खिदमत में पेश है, आशा पारेख महकती हुई, जितेंद्र लहकते हुए और पवित्र जी पापी जी ‘समाज को बदल डालो’ वाली तर्ज़ पर सुलगते हुए. दिल को तोड़कर मरोड़ देनेवाली इस युग प्रवर्तनकारी रचना का शीर्षक है ‘नया रास्‍ता’. पेश है:

पोंछ कर अश्‍क अपनी आंखों से
मुस्‍कराओ तो कोई बात बने
सिर झुकाने से कुछ नहीं होगा
सिर उठाओ तो कोई बात बने

जिंदगी भीख में नहीं मिलती
जिंदगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संगदिल ज़माने से
छीन पाओ तो कोई बात बने

रंग और भेद जात और मज़हब
जो भी हो आदमी से कमतर है
इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह
मान जाओ तो कोई बात बने

नफ़रतों के जहां में हमको
प्‍यार की बस्तियां बसानी है
दूर रहना कोई कमाल नहीं
पास आओ तो कोई बात बने
पोंछ कर अश्‍क एटसेट्रा एटसेट्रा..(1)
अय हय, अय हय, क्‍या बात है! बहुत खूब, पापी साहब, वन्‍स मोर, जनाब!..

पापी दा ने कमाल की चीज़ ही नहीं लिख मारी थी, बेकमाल जितेंद्र और बेसिर पैर की आशा पारेख के मुंह में सोशल मैसेज तक फिट कर दिया था! फिर भी मीडिया गुमराह हो रही है तो वह हो नहीं रही, आपको-हमको गुमराह कर रही है! क्‍या “नफ़रतों के जहां में हमको प्‍यार की बस्तियां बसानी हैं” जैसी पंक्तियां लिखकर पापी जी सीधे-सीधे नफ़रतों का मोहल्‍ला बनाने वालों पर अटैक करते हुए उन्‍हें प्‍यार की बस्तियां बसाने के राह पर लाने की सामाजिक कोशिश नहीं कर रहे? आपको दिख नहीं रहा? क्‍या आप अंधे हैं?

हद है, यार!

ऊपर फोटो: आशा पारेख नहीं डिंपल के साथ जितेंद्र एक अप्रगतिशील नृत्‍य मुद्रा में. संदेश वही: समाज को बदल डालो.

(1). मौलिक रचनाकार: कविवर श्री पवित्र जी पापी जी, अप्रगतिशील ग्रंथमाला, भाग दो खंड तीन के 'नये रास्‍ते' में संकलित

4/05/2007

सामयिक यूरोप का असुविधाजनक टिकट

टिकेट्स (2005), निर्देशक त्रयी: ओल्‍मी, क्‍यारोस्‍तामी, लोच

एक घंटे पचास मिनट की फिल्‍म. इंटरसिटी रेल के सुविधा-संपन्‍न व उतने आरामदेह नहीं डिब्‍बे. इंस्‍ब्रुक से रोम तक आज के यूरोप की अस्थिरता, बेचैनियों से भरा सफर. और इस सफर के अलग-अलग पड़ावों पर एक बिंदु से कथा उठाकर दूसरे बिंदु तक उसे छोड़ आने को तीन अलग-अलग निर्देशक. ओरमान्‍नो ओल्‍मी (इटली), अब्‍बास क्‍यारोस्‍तामी (ईरान) और केन लोच (यूके). मैं फिल्‍म की कहानी के विस्‍तार में जाकर शब्‍द नहीं खाऊंगा. कहानी यहां सामयिक यूरोप की परतों को दर्शाने का जरिया भर है. एक बुज़ुर्ग प्रोफेसर के गुज़रे ज़माने की कोमलता वर्तमान के भय व आशंकाओं के बीच अपने भावभीनेपन को जिलाये रखने की छोटी कोशिशें करती है. उसके स्‍वायत्‍त, सुखी संसार की तकलीफ़ बुढ़ापा उतनी नहीं जितनी शहरी जीवन को लगातार घेरते असुरक्षा के खतरे और रोज़-बरोज़ के जीवन की हिंसा है. असहनशीलता है. वृहत्‍तर पैमाने का सामाजिक कटाव है (यह सेगमेंट सिनेमा के पुराने माहिर हाथ ओल्‍मी ने हैंडल किया है). अगली कड़ी एक अपेक्षाकृत लेड-बेक और उदासीन नौजवान और उसकी जबर जीना हराम करती मां के बारे में है. धीरे-धीरे हम इस रिश्‍ते, और सामयिक समाज के तनावों की और गहरी पेचिदगियां खुलता देखते हैं. निरपेक्ष बने हुए लगातार स्‍तंभित करते रहने की यहां परिचित क्‍यारोस्‍तामी का कमाल हमारे हाथ लगता चलता है. केन लोच की आखिरी कड़ी रोम में अपनी टीम का मैच देखने जा रहे तीन सेल्टिक लड़कों की अपनी छोटी सीमित दुनिया की पहचान और फिर एक अल्‍बानियन शरणार्थी परिवार के दुखों में हिस्‍सेदार होकर वृहत्‍तर यथार्थ से जुड़ने की मानवीय बेचैनी है. आज का इंप्रेसनिस्टिक सिनेमा अपने डेंस लेयर्स में हमें अभी भी काफी कुछ देता रह सकता है, टिकेट्स उसका बेहतर व मर्मस्‍पर्शी उदाहरण है.

4/01/2007

एप्रिल वाला फ़ूल के फल

एप्रिल फ़ूल बनाया तो उनको गुस्‍सा आया (‍उनको.. किनको? सायरा बानो को. लगे हाथ ये भी क्लियर कर लीजिये वाला अप्रैल नहीं वाला एप्रिल, और में नुक़्ता वाला फ़ूल). मेरा क्‍या क़सूर, ज़माने का क़सूर, जिसने दस्‍तूर बनाया (सुबोध मुखर्जी के पैसे पर ये ऑन स्‍क्रीन घोषणा करनेवाले साहब हैं विश्‍वजीत. ऑफ स्‍क्रीन असली हल्‍ला शंकर जयकिशन के गाजे-बाजे पर रफ़ी साहब कर रहे थे). सोचकर कभी-कभी आपको तक़लीफ होने लगे कि रफ़ी साहब ने भी क्‍या-क्‍या हल्‍ला किया है. और भारतीय रुपहले पर्दे पर आज ही नहीं पहले भी हसीनाओं को किस-किस तरह के जोकर (यहां संदर्भ बंगाल के लाल विश्‍वजीत से है) जीतते रहे हैं. सायरा बानो ही नहीं वहीदा रहमान तक ऐसे नमूनों पर फिदा हो जाया करती थीं (बीस साल बाद याद है? हेमंत कुमार जैसे सुरीले सज्‍जन अपना पैसा डालकर यह गंदा खेल करवा रहे थे. बिरेन नाग ऐसे खेल को डायरेक्‍ट भी कर रहे थे. हद्द है.)! सायरा बानो का तो फिर भी ठीक है लेकिन वहीदा रहमान विश्‍वजीत पर अपने डरे-डरे नयन और भरे-भरे ज़ाम लुटाने को कैसे तैयार हो गईं समझना मेरे लिए पहेली है! सायरा को तो, चलो, सुबोध मुखर्जी ने कहा होगा भई, असल मुहब्‍बत की आग में नहीं तपना है सिर्फ़ एप्रिल फ़ूल बनना है सो वही नहीं उनकी अम्‍मी नसीम बानो तक तैयार हो गईं (फिल्‍म में बेटी को सजाने-संवारने का जिम्‍मा यानी कॉस्‍ट्यूम अम्‍मीं जान ही हैंडल कर रही थीं).

विश्‍वजीत ने तब की थी अब जीतू भैया खेल रहे हैं. पता नहीं ज़माने ने जिसको ऐसा विरूप बनाया है, या ज़माने को जो विरूप बनाने पर तुला हुआ है, सुबह से नारद पर बुश का बसाता कलैंडर चढ़ाये हुए हैं. देबू भैया एनडीटीवी के बहाने अविनाश के मोहल्‍ले पर कंकड़ (यानी अप्रैल का फूल) फेंक रहे हैं. दूसरी ओर एक अभय तिवारी हैं जिन्‍होंने किसी और को बनाने का मौका न देकर खुदी को आज फ़ूल का शूल दे लिया है. कॉरपोरेशन वाले भी खूब ठिल्‍ल-ठिल्‍ल हो रहे होंगे कि तिवारी जी ने उनके खिलाफ़ अपना स्‍कूप आज के शुभ दिन ही सार्वजनिक किया. पब्लिक यही समझेगी नहीं समझ रही है कि कंपनी-पिशाच का कच्‍चा-चिट्ठा नहीं, अप्रैल वाला फूल बरस रहा है.

आप सुबह से बने हैं या नहीं? कैसे नहीं बने हैं? रवीश कुमार ने फोन करके आपको किसी राष्‍ट्रीय दुर्घटना से अवगत नहीं कराया? अरे, फिर इंडियन एक्‍सप्रैस में हिंदी ब्‍लॉगिंग वाली ख़बर खोजते-खोजते आप अपने पर कुढ़ने के बाद किसी और पर भी चिढ़े हांगे! वो भी नहीं? तो चलिये, आपका अरमान पूरा कर ही दिया जाए. वहां पहुंचिये जहां हम जा रहे हैं. और बनने की बजाय अगर अरमान बनाने वाला है तो हमारे पीछे लाईन में आकर खड़े हो जाईये. अंदर से हम विश्‍वजीत, जितेंद्र, राजकुमार वाला सफेद शर्ट, सफेद पैंट, सफेद जूता-सूता डाट कर विश्‍व को जीतनेवाला रूप ले लें. डेढ़-दो घंटे में नहीं लौटा तो समझियेगा परफ्यूम की प्रचुरता के असर में बेहोश हो गया हूं, या फिर आप शुद्ध रूप से बने हैं. एप्रिल वाला फ़ूल.

3/29/2007

दस सवालों के घेरे

ईरानी सिनेमा: सात

देश में सुधार के लिए स्‍त्री और छात्रों के संघर्ष ने आम चेतना को किस हद तक छुआ है, और साथ ही साथ इसी क्रम में फिल्‍मों की शक्‍ल कैसे बदली है इसका एक अंदाज़ पिछले कुछ वर्षों की बनी फिल्‍मों में देखा जा सकता है. ‘द सर्किल’ (2000) में पनाही ईरान में स्त्रियों की अवस्‍था पर बहुत ही निर्ममता से चोट करते हैं. आम तौर पर जिस भले-भोलेपन से जोड़कर हम ईरानी सिनेमा को देखते हैं द सर्किल में वह तार-तार होती दिखती है. थोड़े ही अंतराल पर अब्‍बास क्‍यारोस्‍तामी की ‘दस’ (2002) आती है. यहां फिल्‍म का विषय तेहरान की सड़कों पर टैक्‍सी चलाती एक औरत का अपने बेटे व अन्‍य मुसाफिरों के संग किये दस संवाद हैं. ठुकराई दुल्‍हन, वेश्‍या और मस्जिद जाती इस जमाव में हर तरह की स्त्रियां हैं और अंतर्तम की वो सारी टेढ़ी-उलझी लकीरें जिनका आम तौर पर हमें दर्शन नहीं होता. समय और माध्‍यम के चौतरफा एक्‍सप्‍लोरेशन के विश्‍वासी क्‍यारोस्‍तामी ने दस डीवी कैमरा से शूट किया, और फिल्‍म का समूचा समय एक टैक्‍सी के दायरे में संपन्‍न होता है.

इस दौर का मज़ेदार पहलू यह देखना है कि कैसे फिल्‍में यूनिवर्सल सामाजिक चिंताओं से हटकर ईरान की अपनी विशिष्‍ट मुश्किलों पर केंद्रित हो रही थीं. घोबादी के ‘कछुए उड़ सकते हैं’ (2004) में हमारा सामना युद्धजर्जर कुर्द शरणार्थियों और अमरीकी मुक्ति के फ़रेब व व्‍यभिचार की निहायत ही मार्मिक तस्‍वीरों से होता है.

इस तरह से ईरानी सिनेमा ईरानी राज्‍य के साथ एक पेचीदा व मुश्किल रिश्‍ता बनाये हुए है. शाह एक राष्‍ट्रीय सिनेमा विकसित करके अपने लिए ताली बजवाना चाहते थे, लेकिन अर्थपूर्ण सिनेमा की शुरुआत ही ईरान में राज्‍य का विरोध और भारी वर्गीय भेद को दर्शाने से हुई. वे भेद, वे अंतर्विरोध अभी भी खत्‍म नहीं हुए हैं. ईरानी सिनेमा में अच्‍छे या बुरे का अस्तित्‍व नहीं. लोंगों का व्‍यवहार व विचार बहुत हद तक उनकी सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों से उपजती हैं. और इन अंतरविरोधों की मार्मिक व्‍याख्‍या का जो आरंभ फारोगज़ाद और दारियस मेहरजुइ से हुआ था, वह वक्‍त बीतने के साथ और पैना, ज्‍यादा सुघड़ ही हुआ है. हॉलीवुड और बॉलीवुड के मनोरंजन से अपना सिनेमाई ककहरा सीखनेवाले ईरान से आज समूची दुनिया शिक्षा ले सकती है.

(ऊपर जफ़र पनाही के 'द सर्किल' का पोस्‍टर, नीचे घोबादी के 'कछुए उड़ सकते हैं' का कमउम्र 'नायक')

3/28/2007

The Namesake

A Stroll Through Life

By Arun Varma

During the Mumbai Film Festival a couple of years ago, a filmmaker friend of mine once walked out of a film. He told me he could no longer bear watching films traveling less than ten kilometer per hour. I remember being very amused by the way he put it… traveling less then ten km per hour.

The Namesake by Mira Nair does just that. It is a stroll through the walk of life where the filmmaker sometimes makes you sit on the pavement and watch the world as it goes by. By the end of the stroll you realize that you have gone through a lifetime. Nothing happens in the film. Only life. Just life.

The most striking quality of the film is it’s serenity—almost like an Ozu. This serenity assumes various shades. Of joy, nostalgia, loneliness, unbelonging and grief. Like a calm river with surging undercurrents. Even the slightest ripple on this calm surface makes an impression—the image of Ashima collapsing outside her house on a lonely Newyork street at night after hearing of her husband’s death. Or the image of Gogol with a shaved head walking in to meet his mother after his father’s demise.

I would like to tell that friend of mine to watch this film. Who knows.. he might just end up liking it. .

3/26/2007

दुनिया का सबसे खूबसुरत कालीन और सबसे मीठा सेब

ईरानी सिनेमा: छह

तेजी से वैश्विक पूंजीवाद में रुपांतरित होते ईरान का सिनेमा भी बहुत कुछ गाबेह (एक तरह का कालीन) की तरह दिखने लगा. एक फ्रांसीसी कंपनी के आर्थिक सहयोग से बनी गाबेह (मोहसेन मखमलबाफ, 1996) की लागत काफी कम थी मगर सांस्‍कृतिक व आर्थिक मोर्चों पर इसने भारी कमाई की. युद्ध के बाद, खोमैनी के बाद के संदर्भ में नये ईरानी सिनेमा की काव्‍यमयी खूबसुरती अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोहों की पसंद व स्‍वाद के खूब अनुकूल बैठ रही थी, और ताज़ा-ताज़ा सत्‍ता में आये और विदेशी पूंजी के स्‍वागत में खुलते खतामी ने पश्चिमी दुनिया के आगे देश की एक अलग पहचान चिन्हित करने में ईरानी सिनेमा का भरपूर इस्‍तेमाल किया.

नये ईरान की अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान में सरकार की सहयोगी सिनेमा लेकिन सरकार के पीछे-पीछे नहीं चल रही थी, अपने ढंग से वह सवालों के दायरे भी बुन रही थी. बहुत बार तीखेपन में तिक्‍तता का ऐसा क्षण भी आता जब फिल्‍म पर पाबंदी लगाकर उसे सिनेमा के पर्दों से हटाने की नौबत आती. गिरगिट (तबरीज़ी, 2004) एक ऐसी ही फिल्‍म थी जो मुल्‍ला का भेस धरकर जेल से भागे एक अपराधी की कहानी कहती है. भ्रष्‍ट और पतित धर्म के ठेकेदारों के प्रति आम रोश ने झट लोगों को फिल्‍म की तरफ खींचा और इसने ईरानी बॉक्‍स ऑफिस के इतिहास के सारे रेकॅर्ड तोड़ दिये. तब जाकर कहीं सरकारी मुल्‍ला चेते और फिल्‍म पर बैन लगा. मगर गिरगिट शायद सीधे आग की हंडी में कूद रही थी. ढेरों अन्‍य फिल्‍में हैं जो यह यात्रा घूमकर कर रही थीं, और उतने ही मार्मिक स्‍तर पर समाज की आलोचना में सक्षम भी हो रही थीं. और चूंकि वो गिरगिट की तरह रेगुलर व्‍यावसायिक सिनेमा की बजाय समारोहों की चहेती फिल्‍में थीं सरकार के लिए उन पर हाथ धरना उतना आसान नहीं होता. इस लिहाज़ से 18 वर्ष की उम्र में बनाई समीरा मखमलबाफ की फिल्‍म सिब (सेब, 1998) एक अच्‍छा उदाहरण पेश करती है.

समीरा नब्‍बे के दशक के लोकतांत्रिक आंदोलन का बखूबी से वह मिज़ाज पकड़ती है जिसमें ईरान के शासक वर्गों का विभाजन हुआ और खतामी चुनाव जीतकर आये. सेब ग्‍यारह साल की दो ऐसी लड़कियों की कहानी है जो हमेशा ताले के भीतर बंद रहीं और बाहरी संसार से जिनका कोई संपर्क नहीं. ईरानी सिनेमा की परिचित मानवीयता से लबरेज़, फारोगज़ाद की परंपरा में यह फिल्‍म एक ही साथ एक सत्‍य घटना थी, उसका कथात्‍मक रुपांतरण थी और समाज में मौजूद सवालों के कन्‍फ्रंटेशन का एक सीधा रि-एनेक्‍टमेंट भी थी. और परिवर्तन की इस भूमिका में औरत उतर रही थी जो न केवल वर्गीय संबंधों पर सवाल खड़े कर रही है, लैंगिक भेदों पर भी सीधे निशाना साध रही है.

(जारी...)

(ऊपर: पिता मोहसेन की 'गाबेह' का एक दृश्‍य, नीचे: बेटी समीरा मखमलबाफ की 'सेब' से)