2/26/2007

सिर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाये...

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: पांच


प्‍यासा (1957) में वह सबकुछ है जो किसी फिल्‍म के अर्से तक प्रभावी व जादुई बने रहने के लिए ज़रुरी होता है. सामान्‍य दर्शक के लिए एक अच्‍छी, कसी हुई, सामयिक कहानी का संतोष (फिल्‍म के सभी, सातों गाने सुपर हिट). और सुलझे हुए दर्शक के लिए फिल्‍म हर व्‍यूईंग में जैसे कुछ नया खोलती है. अपनी समझ व संवेदना के अनुरुप दर्शक प्‍यासा में कई सारी परतों की पहचान कर सकता है, और हर परत जैसे एक स्‍वतंत्र कहानी कहती चलती है. परिवार, प्रेम, व्‍यक्ति की समाज में जगह, एक कलाकार का द्वंद्व व उसका भीषण अकेलापन, पैसे का सर्वव्‍यापी बर्चस्‍व और उसके जुडे संबंधों के आगे बाकी सारे संबंधों का बेमतलब होते जाना. जॉनी वॉकर गाते हुए चकराये सिर व डूबे दिलवालों को अपने यहां चंपी करवाने की नसीहत देते हैं, और गुरु दत्‍त दिल क्‍यों डूबा जाये का एक काफी उलझा भूगोल हमारे आगे खींचते चलते हैं.

विजय (गुरु दत्त) ऐसा शायर है जिसकी उदास नज़्मों में किसी पब्लिशर की दिलचस्‍पी नहीं. घर में सगे भाई उसे फालतू का शगल बताकर रद्दीवाले के हाथों बेच देते हैं. अपने खोये नज़्मों की खोज विजय को वेश्‍या गुलाब (वहीदा रहमान) के पास ले जाती है जिसके मन में उस शायरी और उसके लिखनेवाले दोनों के प्रति विशेष स्‍नेह है. कॉलेज रियूनियन के एक जमावडे में विजय पुरानी सहपाठिन मीना (माला सिन्‍हा) से टकरा जाता है जिसने कभी उसके लिए प्‍यार भरे गाने गाये थे मगर सामाजिक सुरक्षा के लिए शादी एक सफल व अमीर प्रकाशक घोष (रहमान) से कर ली है. घोष साहब तेज़दिमाग, काबिल आदमी हैं, झट इस पुरानी आंच की तपिश भांप लेते हैं. बीवी को नीचा और अपने को ऊंचा दिखाने के लिए विजय को अपने यहां नौकर रख लेते हैं. घर की पार्टी में उससे बेयरे का काम लेते हैं, उसकी नज़्म नहीं छापते. बीवी के टूटे दिल और कुछ छूटे आंसुओं का नज़ारा देखकर पब्लिशर साहब के मन में पहले से ही घर की शुबहा और पुख्‍ता होती है, और शायर को नौकरी से बरखास्‍त कर वे बीवी को उसके पुराने प्रेम की सज़ा देते हैं.

इससे आगे की बातें हम कल कहेंगे, और प्‍यासा और हमारे समय से जुडी कुछ काम की बातें करने के लिए एक और दिन की मुहलत लेंगे. यहां बस इतना कहकर बात समेटते हैं कि जॉनी वॉकर की उपस्थिति, और माला सिन्‍हा के साथ एक ड्रीम सिक्‍वेंस गाने (हम आपकी आंखों में इस दिल को...) से अलग प्‍यासा मौजूदा हालात के अपने कडवे बयानों में शायद ही कहीं और समझौता करती है (गाने की फिल्‍म में उपस्थिति के पीछे संभवत: वितरकों का दबाव रहा हो. तो गुरु दत्‍त ने हमको-आपको ही नहीं, वितरकों को भी खुश रखा). गुरु दत्‍त के गुरुत्‍व और अभी हाल में प्रदर्शित हुए- समाज में व्‍यक्ति संघर्ष की ही गाथा- दूसरे ‘गुरु’ को अगर हम साथ-साथ खडा करें तो कुछ मज़ेदार और चौंकानेवाले तथ्‍य सामने आयेंगे. वहां तक आने के लिए बस हमें ज़रा समय दीजिये.

बाकी का आगे...

(ऊपर वेश्‍या गुलाब: ऐसी निश्‍छल हंसी जो हर दुख हर ले, नीचे दिल और दुनिया की पेंचों को सुलझाता, सोच में डूबा शायर विजय)

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

आप सिनेमा की बड़ी अच्छी जानकारी देते हैं!

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

सिनेमा के बारे में आप जो कुछ बयां करते, सचमुच ज्ञान बढाउ टानिक की तरह है. आप प्यासा को लेकर जो सीरिज चला रहे है वह भी काफी अच्छा लग रहा है. प्यासा की जादूई चमक से हमलोगो को बस ऐसे ही रू ब रू कराते रहें.

Anonymous said...

मैंने इलास्टिक वाला चौड़ा कच्‍छा पहनकर घूमते हुए अमरूद खाने की उम्र में प्‍यासा और कागज के फूल देखी थी, जिसकी अब कुछ उड़ती-उड़ती-सी याद भर बाकी है। लेकिन आपके लेख के बहाने उनकी यात्रा का अनुभव रस दे रहा है।
-म. कुमारी, इलाहाबाद