3/26/2007

दुनिया का सबसे खूबसुरत कालीन और सबसे मीठा सेब

ईरानी सिनेमा: छह

तेजी से वैश्विक पूंजीवाद में रुपांतरित होते ईरान का सिनेमा भी बहुत कुछ गाबेह (एक तरह का कालीन) की तरह दिखने लगा. एक फ्रांसीसी कंपनी के आर्थिक सहयोग से बनी गाबेह (मोहसेन मखमलबाफ, 1996) की लागत काफी कम थी मगर सांस्‍कृतिक व आर्थिक मोर्चों पर इसने भारी कमाई की. युद्ध के बाद, खोमैनी के बाद के संदर्भ में नये ईरानी सिनेमा की काव्‍यमयी खूबसुरती अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोहों की पसंद व स्‍वाद के खूब अनुकूल बैठ रही थी, और ताज़ा-ताज़ा सत्‍ता में आये और विदेशी पूंजी के स्‍वागत में खुलते खतामी ने पश्चिमी दुनिया के आगे देश की एक अलग पहचान चिन्हित करने में ईरानी सिनेमा का भरपूर इस्‍तेमाल किया.

नये ईरान की अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान में सरकार की सहयोगी सिनेमा लेकिन सरकार के पीछे-पीछे नहीं चल रही थी, अपने ढंग से वह सवालों के दायरे भी बुन रही थी. बहुत बार तीखेपन में तिक्‍तता का ऐसा क्षण भी आता जब फिल्‍म पर पाबंदी लगाकर उसे सिनेमा के पर्दों से हटाने की नौबत आती. गिरगिट (तबरीज़ी, 2004) एक ऐसी ही फिल्‍म थी जो मुल्‍ला का भेस धरकर जेल से भागे एक अपराधी की कहानी कहती है. भ्रष्‍ट और पतित धर्म के ठेकेदारों के प्रति आम रोश ने झट लोगों को फिल्‍म की तरफ खींचा और इसने ईरानी बॉक्‍स ऑफिस के इतिहास के सारे रेकॅर्ड तोड़ दिये. तब जाकर कहीं सरकारी मुल्‍ला चेते और फिल्‍म पर बैन लगा. मगर गिरगिट शायद सीधे आग की हंडी में कूद रही थी. ढेरों अन्‍य फिल्‍में हैं जो यह यात्रा घूमकर कर रही थीं, और उतने ही मार्मिक स्‍तर पर समाज की आलोचना में सक्षम भी हो रही थीं. और चूंकि वो गिरगिट की तरह रेगुलर व्‍यावसायिक सिनेमा की बजाय समारोहों की चहेती फिल्‍में थीं सरकार के लिए उन पर हाथ धरना उतना आसान नहीं होता. इस लिहाज़ से 18 वर्ष की उम्र में बनाई समीरा मखमलबाफ की फिल्‍म सिब (सेब, 1998) एक अच्‍छा उदाहरण पेश करती है.

समीरा नब्‍बे के दशक के लोकतांत्रिक आंदोलन का बखूबी से वह मिज़ाज पकड़ती है जिसमें ईरान के शासक वर्गों का विभाजन हुआ और खतामी चुनाव जीतकर आये. सेब ग्‍यारह साल की दो ऐसी लड़कियों की कहानी है जो हमेशा ताले के भीतर बंद रहीं और बाहरी संसार से जिनका कोई संपर्क नहीं. ईरानी सिनेमा की परिचित मानवीयता से लबरेज़, फारोगज़ाद की परंपरा में यह फिल्‍म एक ही साथ एक सत्‍य घटना थी, उसका कथात्‍मक रुपांतरण थी और समाज में मौजूद सवालों के कन्‍फ्रंटेशन का एक सीधा रि-एनेक्‍टमेंट भी थी. और परिवर्तन की इस भूमिका में औरत उतर रही थी जो न केवल वर्गीय संबंधों पर सवाल खड़े कर रही है, लैंगिक भेदों पर भी सीधे निशाना साध रही है.

(जारी...)

(ऊपर: पिता मोहसेन की 'गाबेह' का एक दृश्‍य, नीचे: बेटी समीरा मखमलबाफ की 'सेब' से)

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