7/14/2007

मास्क्ड एंड एनॉनिमस

डाइरेक्टर: लैरी चार्ल्स
लेखक: बॉब डिलन और लैरी चार्ल्स
संगीत: बॉब डिलन
साल: 2003
अवधि: 101 मिनट
रेटिंग: ***

टैगलाइन: Would you reach out your hand to save a drowning man if you thought he might pull you in?



सितारों की चकाचौंध को मैनेज करते, अपने बचाव में हर प्रकार का भाषाई तर्क गढ़ते और शराब पी-पी कर कंगाल हो चुके ईवेन्ट प्रोड्यूसर जॉन गुडमैन.. राजनीति की दलाली में नोट गिनने वाले टी वी चैनल मालिकों से फटकार पाने और अपने नीचे वालों पर रौब गाँठने के बीच खोखली हो चुकी टी वी एक्ज़ीक्यूटिव जेसिका लैंग.. सारे संसार से जवाबदेही करने को तैयार, मनुष्यता की गंद में लिथड़ने वाला पत्रकार जेफ़ ब्रिजेस.. संगीत की सच्चाई के सहारे दुनिया में एक सपनीले जीवन की रूमानियत लिए फ़िरते संगीत प्रेमी ल्यूक विलसन.. धैर्य, तिकड़म और बारूद तीनों के इस्तेमाल से सड़क से शीर्ष तक का सफ़र करने वाले सत्ता के लालची मिकी रूर्क.. हर बुरे प्रभाव को श्रद्धा और भक्ति से भगा देने में तत्पर भयाकुल पेनोलूप क्रूज़.. इन के अलावा वैल किल्मर, क्रिस्चिअन स्लेटर, एंजेला बेसेट, जोवान्नी रिबिसी और एड हैरिस एक साथ एक फ़िल्म में कर क्या रहे हैं?..

मुख्य भूमिका निभा रहे बॉब डिलन के इर्द-गिर्द छोटे-मोटे किरदार कर रहे हें..

बॉब अपने वास्तविक जीवन की तरह फिल्म में भी एक रॉक म्यूज़िक लीजेंड की भूमिका में हैं.. जिसका करियर सालों पहले समाप्त हो चुका है..

अभिनय के इन तमाम दिग्गजों का शानदार अभिनय.. आत्मिक आनन्द देने वाला मिज़ान-सेन.. गहरी परतदार स्क्रिप्ट.. और आपके अन्दर गहरे तक उतरते रहनेवाला संगीत.. और क्या उम्मीद करते हैं आप एक फ़िल्म से..? ख़ासतौर पर तब जब वह किसी निर्देशक की पहली फ़ि‍ल्‍म हो!.. हो सकता है आप को पहले दफ़े आनन्द तो भरपूर आये मगर हर बात समझ न आय.. तो दुबारा देखियेगा.. समझ में भी आयेगी और आनन्द भी बढ़ जाएगा..

- अभय तिवारी

7/10/2007

अव‌र लेडी ऑफ द एसैसिन्स..

डायरेक्टर: बारबेत श्रॉडर
अवधि: 101 मिनट
साल: 2000

रेटिंग: ***

ह‌म ने हिन्दुस्तानी हिंसा देखी है.. म‌द‌र इंडिया, दीवार, मेरी आवाज़ सुनो, अर्जुन‌, और प्रतिघात‌ आदि की हिंसा देखी है.. अम‌रीकी स‌माज की स्कारफेस‌, रेस‌र्वाय‌र डॉग्ज़ और नैचुरल बॉर्न किलर्स की हिंसा देखी है.. ब्रूस ली और जैकी चान ब्रांड की हिंसा भी देखी है.. म‌ग‌र अव‌र लेडी ऑफ असैसिन्स की हिंसा कुछ विशेष है.. ये हिंसा नैतिक रूप से चुक चुके, त‌बाह हो चुके स‌माज की हिंसा है.. फिल्म का खिचड़ी बालों वाला नाय‌क शुरुआत में ही मुस्‍कराते हुए घोषणा करता है कि वो अप‌ने बचपन के श‌ह‌र में म‌रने के लिए लौटा है..

प्रौढ़ वय का फे‌रनान्दो एक अभिजात्य व‌र्ग का एक जीव‌न से निराश प्रतिनिधि, भूत‌पूर्व लेख‌क व‌ वैयाक‌रण‌, सालों बाद मेदिलिन वा‌प‌स लौटा है.. मेदिलिन कोल‌म्बिया का दूस‌रा स‌ब‌से ब‌ड़ा श‌ह‌र.. और कोल‌म्बिया जो दुनिय‌ा भ‌र को कोकेन आपूर्ति क‌रने व‌ाले ड्रग कार्टेल्स का मुल्क है, और जो भूल रहे हों याद कर लें कि साहित्‍य के महापुरुष गाब्रियेल गार्सिया मार्क्‍वेज़ की जन्‍मस्‍थली भी यही देश है.. शह‌र में आतिश‌बाजियां इस बात का इशारा करती हैं कि कोकेन का कोई ब‌ड़ा क‌न्साइन‌मेंट अमेरिका स‌फ‌ल‌तापूर्व‌क प‌हुँच ग‌या..

ऎसे मित्र जो नैतिक आग्रहों की संकीर्ण‌ता से त‌माम मुद्दों प‌र राय क़ाय‌म क‌रते हैं.. उन्हे य‌ह फिल्म एक स‌माज की नैतिक तबाही की ईमान‌दार त‌स्वीर दिख‌ने के ब‌जाय स्व‌यं नैतिक त‌बाही की व‌काल‌त क‌रती दिख स‌क‌ती है.. फेरनान्‍दो के पास विरास‌त से मिला पैसा है, जीव‌न के क‌टु अनुभ‌व हैं, व्यंग्य‌तिक्त मुहाव‌रेदार भाषा है, पुरानी यादें हैं, और स‌म‌लैंगिक प्रेम के ढेरों अनुभ‌व हैं.. जी, फे‌रनान्दो एक स‌म‌लैंगिक है.. जिस‌की दिल‌च‌स्पी क‌म उम‌र के नौज‌वान ल‌ड़‌कों में है.. जिसे भ‌देस‌ ज़‌बान में ह‌मारे य‌हाँ लौंडेबाज क‌हा जाता है..

म‌ग‌र फिल्म देख‌ते हुए आप एक प‌ल को भी ना तो उसे किसी ग्लानि में लिप्त पाते हैं और न ही फिल्म के उसे प्रद‌र्शित क‌रने के न‌ज़‌रिये को.. दोनों ल‌गातार एक मान‌वीय ग‌रिमा ब‌नाये रख‌ते हैं.. फेरनान्दो को अलेक्सिस नाम के एक नौज‌वान से प्यार हो जाता है.. फेरनान्दो अलेक्सिस को अप‌ने बड़े, सूने घर लिये आता है.. शांति और ख़ामोशियों की छतरी में प्रसन्‍न रहनेवाला फेरनान्‍दो अलेक्सिस की खुशी के लिए म्यूज़िक सिस्टम और टीवी ख‌रीदकर लाता है.. सन्‍नाटे से भरे खाली घर में शोर की मौज़ूदगी का अभ्‍यस्‍त होने की कोशिश करता है..

दोनों के जीव‌न में कोई उद्देश्य न‌हीं है.. एक प‌ढ़-लिखक‌र स‌ब देख-स‌म‌झक‌र इस निहिलिस्ट अव‌स्था में प‌हुँचा है.. तो दूस‌रा उन्ही मूल्यों के बीच पला-बढ़ा है.. दोनों श‌ह‌र भ‌र में घूम‌ते हैं.. फेरनान्दो के पास ह‌र चीज़ के बारे में एक बेबाक क‌ड़‌वी राय है.. और अलेक्सिस के पास ह‌र उस व्य‌क्ति के लिए एक गोली जिससे छोटा सा भी म‌त‌भेद हो जाय‌.. पुलिस और राज्य व्य‌व‌स्था दूर-दूर त‌क क‌हीं त‌स्वीर में भी न‌हीं आती.. सब अपने लिए हैं सरकार किसी के लिए नहीं है.. साफ़-सुथरी सड़कें हैं, शहरी सरंचना हैं, गाते-बजाते लोग-से सभ्‍यता के नमूने हैं मगर यह सभ्‍यता अंदर से पोली है, खोखली है..

फेरनान्दो को अलेक्सिस‌ द्वा‌रा की जा रही इसकी और उसकी अंधाधुंध ह‌त्याओं से त‌क‌लीफ होती है.. व‌ह अलेक्सिस को स‌म‌झाता है कि, "मौत उन‌के ऊप‌र एक एह‌सान है.. जीने दो सालों को.. जीना ही उनकी सज़ा हैं..".. अलेक्सिस को बात स‌म‌झ न‌हीं आती.. ह‌त्याएं च‌ल‌ती रह‌ती हैं.. प‌र फेरनान्दो का निराशावादी न‌ज़‌रिया इसे ब‌हुत तूल न‌हीं देता.. कोई नैतिक निर्ण‌य न‌हीं क‌रता.. ह‌त्या के तुरंत बाद वे फिर हँस‌ने-बतियाने ल‌ग जाते हैं.. अलेक्सिस की जान के पीछे कुछ पुराने दुश्म‌न भी हैं.. उस पर ह‌म‌ले होते ही रह‌ते हैं.. दो बार व‌ह ब‌च जाता है.. प‌र तीस‌री बार मारा जाता है..

फेरनान्दो दुखी है.. एक दिन स‌ड़‌क प‌र उसे अलेक्सिस् जैसा ही दूस‌रा ल‌ड़‌का मिल‌ता है.. विल‌मार.. शीघ्र ही अलेक्सिस जैसा दिखता नया लड़का अलेक्सिस की ज‌ग‌ह ले लेता है.. फेरनान्दो अब उसे न‌हीं खोना चाह‌ता.. और विल‌मार को अप‌ने साथ देश छोड़‌ने के लिए राजी क‌र लेता है.. त‌ब उसे प‌ता च‌ल‌ता है कि विल‌मार ही व‌ह ल‌ड़‌का है जिस‌नें अलेक्सिस की जान ली.. फिर कोई नैतिक‌ता बीच में न‌हीं आती.. अलेक्सिस ने उस‌के भाई को मारा था.. आखिर में विल‌मार भी मारा जाता है.. शायद शहर के हाशिये पर कहीं, किसी झुग्‍गी-झोपड़ी की बदहाल गरीबी में उसका भी कोई छोटा भाई जल्‍दी ऐसे जुमले सीख जाए जिसमें अपने भाई के हत्‍यारों से बदला लेने की बात लगातार दोहराई जाती रहे.. जैसाकि अलेक्सिस की मौत के बाद उसके गरीब घर दुख बांटने पहुंचे फेरनान्दो को छोटे बच्‍चों की बतकही में हम दोहराता सुनते हैं!..

मरने की चाहत लिए अपने पुराने शहर लौटा फेरनान्दो फिल्‍म के आख़ि‍र में अभी भी ज़ि‍न्‍दा है, अकेला टहल रहा है, बरसात की झड़ी शुरू होती है, और धीमे-धीमे सड़क पर बहता, इकट्ठा होते पानी का रंग बदलकर लाल होने लगता है.. शहर व एक समूची सभ्‍यता कसाईबाड़े की बेमतलब ख़ून पीते रूपक में बदल जाती है..

एक स्त‌र प‌र फिल्म भ‌ग‌वान के खिलाफ ग‌ह‌री शिकाय‌त भी है.. फिल्म के नाम से भी यह शिकाय‌त‌ ज़ाहिर होती है.. और कई बार ह‌म फेरनान्दो को च‌र्च के सूनसान में जाकर, बैठे हुए कुछ सोच‌ता पाते हैं.. एक ज‌ग‌ह व‌ह क‌ह‌ता भी है.. "भ‌ग‌वान हार ग‌या .. शैतान जीत ग‌या.."

वास्त‌विक लोकेश‌न्स प‌र एच डी विडियो कैम‌रे से गुरिल्ला स्टाइल में शूट की फिल्म कुछ लोगों को अप‌ने लुक में किसी स्टूडेन्ट फिल्म जैसी ल‌ग स‌क‌ती है.. प‌र मेरी स‌म‌झ से व‌ही लुक इसे सिनेमा वेरिते की श्रेणी में भी ला ख‌ड़ा क‌र देता है..फिल्म में दिखाई ग‌ई स‌च्चाई के दूस‌रे प‌ह‌लू जैसे अम‌रीकी नीतियों और अम‌रीकी स‌माज की कोल‌म्बिया की इस हाल‌त में ज़िम्मेवारी, ड्रग्स का कार्य‌ व्यापार, कोल‌म्बिय‌न राज्य और स‌रकार की नाकारी के बारे में फिल्म बात न‌हीं क‌रती.. ब‌स इन स‌ब के म‌नुष्य के मान‌स प‌र प‌ड़ रहे प्रभाव को उकेरने त‌क ही अप‌ने को सीमित रख‌ती है.. म‌नुष्यता के प‌त‌न की एक निच‌ली सीढ़ी को देख‌ना कोई आन‌न्ददायी अनुभ‌व तो न‌हीं है.. ‌म‌ग‌र अप‌नी स‌म‌झ को विस्तार देने के लिए एक ज़‌रूरी अनुभ‌व ज़‌रूर है.. हाथ ल‌गे तो देखिये अव‌र लेडी ऑफ असैसिन्स‌..

-अभय तिवारी

7/09/2007

जीवन एक जादू..

निर्देशक: इमीर कुस्‍तुरिका
अवधि: 155 मिनट
साल: 2004

रेटिंग: ***

सारायेवो में पैदा हुए बोस्नियायी मुसलमान, छह फुटी ऊंची डील-डौल और खूबसूरत शख़्सीयत के मालिक इमीर कुस्‍तुरिका जब फ़ि‍ल्‍म नहीं बनाते तो अपने ‘नो स्‍मोकिंग बैंड’ के पागलपनों से भरे गानों की तैयारी में जुटे होते हैं. और फ़ि‍ल्‍म बनाते वक़्त तो पागलपन रहता ही है. नक़्शे में बेमतलब हो चुके पुराने युगोस्‍लाविया में नस्‍ल व इतिहास के चपेटे में विस्‍मयकारी जीवन जीते लोगों का शोकगीत दर्ज़ करना कुस्‍तुरिका की क़रीबन पंद्रह फ़ि‍ल्‍मों का मुख्‍य थ़ीम रहा है. समसामयिक सिनेमा में फैल्लिनियन शैली की दुनिया गढ़नेवाले कुस्‍तुरिका उन चंद भाग्‍यवान सिनेकारों में हैं जिन्‍हें कान में दो मर्तबा पुरस्‍कृत किया गया (‘व्हेन फ़ादर वॉज़ अवे ऑन बिज़नेस’, 1985 और दस वर्ष बाद ‘अंडरग्राउंड’ के लिए 1995 में). ’ज़ि‍वोत जा कुदो’ (अंग्रेज़ी में ‘लाईफ़ इज़ अ मिरैकल’) उन्‍होंने 2004 में बनाई..

बोस्निया, 1992 का समय. कहानी का नायक लुका बेलग्रेड से अपनी ऑपेरा गानेवाली और ऑपेरैटिक-सी ही पिच पर रहनेवाली बीवी और फुटबॉल के खिलाड़ी बेटे मिलॉश के संग अपने को एक गुमनाम-से गांव में स्‍थानांतरित करता है. आंखों में एक ऐसे रेलमार्ग का सपना पाले जो क्षेत्र को पर्यटकों के स्‍वर्ग में बदल डालेगी.. काम व स्‍वभावगत आशावाद की ख़ुमारी में इस बात से अनजान कि कैसे माथे पर युद्ध के गहरे बादल मंडरा रहे हैं.. और फिर जब धमाकों से गांव की दीवारें गूंजना शुरू करती हैं तो लुका के जीवन का सब उलट-पुलट जाता है.. पत्‍नी किसी हंगैरियन संगीतकार के साथ उड़ जाती है, बेटा छिनकर फ़ौज का हो जाता है.. मगर फ़ि‍ल्‍म विभीषिकाओं के यथार्थवादी डॉक्‍यूमेंटशन में नहीं फंसती.. वह तने हुए तारों में इतिहास व मनुष्‍यता के कैरिकेचर पकड़ती है.. जिस कैरिकेचर में मनुष्‍य और पशु लगातार एक-दूसरे के संग जगहों की अदला-बदली करते रहते हैं.. कभी-कभी पशुत्‍व मनुष्‍यता से ज्‍यादा कोमल व मार्मिक भी हो लेती है..

फ़ि‍ल्‍म की कहानी के विस्‍तार में जाने से बच रहा हूं.. उस पर अन्‍य जगहों काफी लिखा गया है. आपकी दिलचस्‍पी बने तो एक नज़र यहां मार सकते हैं.

7/08/2007

एलविरा मादिगन..

डायरेक्टर: बो वाइडरबर्ग
अवधि: 90 मिनट
साल: 1967

रेटिंग: ***

एक निहायत ही खूबसूरत फ़िल्म.. स्कैन्डिनेवियन समर के जादुई उजाले में फ़िल्माई हुई यह फ़िल्म दरअसल 1889 की एक सच्ची घटना पर आधारित है.. अपने सौतेले पिता के सर्कस में रस्सी पर चलने वाली लड़की का नाम था एलविरा मादिगन.. जिसे प्यार हो जाता है सिक्सटेन स्पारै नाम के एक आर्मी अफ़सर से..

फ़ौज से भागा हुआ दो बच्चों का बाप सिक्सटेन और एलविरा एक मास तक यहाँ वहाँ घूमते हैं.. जंगल.. गाँव कस्बे.. अपने प्यार को पूरी शिद्द्त से जीते.. पैसों की कमी की परवाह न करते.. और आखिर में एक ऐसी नौबत को पहुँचते जब उन्हे पेट भरने के लिए बीन बीन कर फल फूल खाने पड़े.. एक दूसरे को छोड़ कर समाज में लौट कर उसकी दी हुई सजाओं को भोगना.. इसे स्वीकार करने में असहाय ये दो प्रेमी.. आखिर में अपनी तरह का जीवन ना जी पाने की असहायता में खुद्कुशी कर लेते हैं.. सिक्सटेन, एलविरा को गोली मार के खुद भी मर जाता है.. उस वक्त सिक्सटेन 35 बरस का और अलविरा 21 बरस की थी.. डेनमार्क में मौजूद उनकी कब्र पर प्रेमियों का मेला आज भी लगता है..

कहानी जितनी दुखद है.. इस फ़िल्म का सिनेमैटिक अनुभव उतना नहीं.. डेढ़ घंटे की अवधि में अधिकतर समय आप दो प्रेमियों के प्रेम के मुक्त आकाश को देखते हैं.. खुली खूबसूरत आउटडोर सेटिंग्स में.. महसूस करते हैं उनके प्यार की गरमाहट को वार्म पेस्टल शेड्स में.. और मोज़ार्ट और अन्य मास्टर्स के संगीत और उनकी निश्छल खिलखिलाहटों में.. एक यादगार मुहब्बत का खूबसूरत सिनेमाई अनुभव..

इस फ़िल्म में एलविरा की भूमिका निभाने के लिए पिआ देगेरमार्क को कान फ़िल्म महोत्‍सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया..

-अभय तिवारी