8/25/2007

चक दे! इंडिया

साल: 2007
भाषा: हिंदी
डायरेक्‍टर: शिमित अमीन
लेखक: जयदीप साहनी
रेटिंग: ***

डिसग्रेस्‍ड हीरो की शुरुआत हमेशा फ़ि‍ल्‍म को एक अच्‍छी बिगनिंग देती है.. आगे इस तनाव का सस्‍पेंस खिंचा रहता है कि हीरो के ग्रेस की वापसी कैसे होगी.. होगी या नहीं (होगी कैसे नहीं, भई, फ़ि‍ल्‍म है, वास्‍तविक जीवन नहीं?). उस लिहाज़ से ‘चक दे! इंडिया’ की शुरुआत तनी और कसी हुई नहीं.. लिखाई में भी इकहरापन है.. मगर उसके बाद फ़ि‍ल्‍म एकदम-से अपनी चाल पकड़ लेती है.. आमतौर पर हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के घटियापे से अलग कैरेक्‍टराइज़ेशन पर ध्‍यान देती दिखती है.. चरित्रों के अंर्तलोक की जटिल परतों को बीच-बीच में मज़ेदार तरीके से पकड़ती है.. दर्शकों की दिलचस्‍पी बांधे रखती है.. और बड़ी मस्‍तानी चाल से आगे दौड़ती रहती है.. बीच-बीच में ऐसे डायलॉग आते रहते हैं कि आपको हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के लेखन को दो कौड़ी का तय करने के फ़ैसले में असुविधा हो.

सबसे मज़ेदार है चक दे! इंडिया की लड़कियां.. कोमल चौटाला, प्रीति सबरवाल, विद्या शर्मा, बिंदिया नायक ऐसी लड़कियां है जिन्‍हें सोचते और अपनी बात कहता देख खुशी होती है.. कभी-कभी आगे बढ़कर उनसे हाथ मिलाने का मन करता है.. वे ऐसी लड़कियां हैं जिन्‍हें आप शायद आगे किसी फ़ि‍ल्‍म में न देखें.. क्‍योंकि वे ख़ूबसूरत और सेक्‍सी- कोई प्रीति झिंटा या रानी मुखर्जी नहीं.. अपने पैरों व दिमाग़ पर खड़ी आज की ज़िंदा लड़कियां हैं.. चक दे! इंडिया की व्‍यावसायिक सफलता के पीछे भी शायद दर्शकों का इन लड़कियों में अपना अक़्स देख लेना ही है.

लड़कियां कमाल की हैं, शाहरूख नहीं, जैसाकि प्रैस फ़ि‍ल्‍म के बारे में लिखते-बताते हुए बार-बार बोलती रही है.. हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के ढेरों दुर्गुणों से मुक्‍त चक दे! की लिखाई, कैरेक्‍टराइज़ेशंस, अच्‍छी कास्टिंग फ़ि‍ल्‍म का अच्‍छे पहलू हैं.. तो कुछ बुरे पहलू भी हैं.. मसलन पूरी फ़ि‍ल्‍म में अनाप-शनाप बजता सलीम-सुलैमान का बैकग्राउंड स्‍कोर और वैसे ही ऊटपटांग गाने.. आप उसपर कान न दीजिए तो बाकी फ़ि‍ल्‍म फिट है.. हिट तो है ही.

ट्रेड के लिहाज़ से यह तथ्‍य भी मज़ेदार है कि यशराज की ज़्यादा महात्‍वाकांक्षी, मुख्‍यधारा के टंटों में ज़्यादा रची-बसी ‘झूम बराबर झूम’ बाज़ार से हवा हो जाती है.. और शिमित अमीन जैसे एक ‘अब तक छप्‍पन’ के ऑफ़बीट, अनफमिलियर निर्देशक की लाटरी निकल पड़ती है.

8/20/2007

जर्मनी ईयर ज़ीरो

साल: 1948
भाषा: इतालवी
डाइरेक्टर: रॉबर्तो रोस्सेलिनि
अवधि: 71 मिनट
रेटिंग: ****

रोस्सेलिनि नियो रियलिस्ट सिनेमा के बड़े हस्ताक्षर हैं. रोम ओपेन सिटी और पैसान के साथ यह फ़िल्म उनकी युद्ध त्रयी का आखिरी भाग है.

दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो चुका है. जरमनी खण्डहर बन चुका है. उस पर विजेता अलाइड फ़ोर्सेज़ काबिज़ हैं. जिनके घर नष्ट हो गए हैं वे सरकार द्वारा दूसरों के घरों में ठूँस दिए गए हैं. ऐसे ही एक छोटे से परिवार की कहानी है यह फ़िल्म. फ़िल्म की क्रूर और नंगी सच्चाई को हम 12 साल के एदमन्द की आँखों से देखते हैं. पिता बीमार हो कर खाट पकड़े हुए है. नाज़ी सेना का लड़ाका रह चुका भाई छुप कर रहा है. डरता है कि उसे डण्डित किया जाएगा. चार मुँह भरने की जिम्मेदारी बड़ी बहन पर है जो रातों को एलाईड फ़ोर्सेज़ के सैनिकों के दिल बहला कर कुछ कमाई करती है. और एदमन्द पर जो कम उमर होने पर भी कब्रें खोद कर और काला बाज़ार में घर का सामान बेच कर अपने परिवार की अस्तित्व रक्षा करना चाहता है. हालात कठिन हैं. पर एदमन्द सीखने को तैयार है. वह अपने पुराने शिक्षक के द्वारा कामुक पुचकार भी सहने को तैयार है, अगर कुछ कमाई होती हो. मगर पिता का दर्द और परिवार की भूख उस से देखी नहीं जाती.. और वह कुछ ऐसा अप्रत्याशित कर बैठता है जो शायद पूरी जर्मन जाति द्वारा अपने इतिहास को नकारने के प्रतीक तुल्य है.

बिना किसी भावुकता के फ़िल्माई यह श्याम श्वेत फ़िल्म आप को अन्तर को गहरे तक चीरती चली जाती है और कुछ मूलभूत सवाल खड़े करती है.

- अभय तिवारी

8/12/2007

ब्लू अम्ब्रेला

छतरी चोर

डाइरेक्टर: विशाल भारद्वाज
कहानी: रस्किन बांड
पटकथा: विशाल भारद्वाज,
अभिषेक चौबे, मिंटी कुंवर तेजपाल
संवाद: विशाल भारद्वाज
कैमरामैन: सचिन के क्रिश्‍न
संगीत: विशाल भारद्वाज
साल: 2007
अवधि: 90 मिनट
रेटिंग: ***

मैने विशाल भारद्वाज की सभी फ़िल्में देखी हैं.. मेरे ख्याल में ब्लू अम्ब्रेला उनकी सबसे बेहतर फ़िल्म है.. फ़िल्म की कहानी बहुत मामूली है.. एक पहाड़ी कस्बे की एक दस ग्यारह बरस की लड़की बिनिया को एक जापानी छतरी मिल जाती है.. जिसे पा कर वह उड़ती फिरती है.. मगर कस्बे के अधेड़ परचूनी नन्दू की भी नज़र छतरी पर है.. और एक दिन छतरी चोरी हो जाती है.. बिनिया को शक़ है कि छतरी नन्दू ने ली है जो पहले भी छतरी हथियाने के लिए उसे तरह तरह के प्रलोभन दे चुका है.. मगर तलाशी लेने पर भी छतरी नन्दू के पास से नहीं मिलती..बाकी फ़िल्म बिनिया और नन्दू के बीच छतरी को लेकर इसी तनाव की कहानी है..

फ़िल्म बच्चों की निश्छल दुनिया को दिखाती है.. काफ़ी हद तक और काफ़ी देर तक बच्चों की मासूम नज़र से भी दिखाती है.. इन्टरवल के बाद के एक गाने और कुछ दसेक मिनट को छोड़ दें तो फ़िल्म में एक कसाव बना रहता है.. बच्चों की उस भूली बिसरी दुनिया को मैं देखता सुनता रहा जो काफ़ी सालों से हिन्दी फ़िल्मों के लिए अनजानी है.. सत्तर के दशक में गुलज़ार ने उसे कभी छुआ था.. और अस्सी के दशक में शेखर कपूर ने.. नहीं तो बचपन का वह संसार हिन्दी फ़िल्मों में निरापद ही रहा है..

फ़िल्म हिमाचल के किसी छोटे कस्बे में फ़िल्माई गई है.. और गर्मी, बरसात और बरफ़ानी सर्दी सभी मौसम की रंगत दिखलाती है.. पहाड़ों पर आप किसी भी तरफ़ कैमरा रख कर चला दीजिये कुछ खूबसूरत क़ैद हो ही जाएगा.. लिहाज़ा फ़िल्म खूबसूरत बनी रहती है.. शायद और खूबसूरत भी हो सकती थी.. संगीत विशाल का अपना है.. और एक गीत को छोड़कर बचपन का संसार का जादू बनाये रखने में मदद करता है.. संवाद हमेशा की तरह इस फ़िल्म में भी विशाल के ही हैं.. और बहुत उम्दा हैं.. पंकज कपूर कमाल के अभिनेता है.. एक बार फिर साबित करते हैं.. दो चार अन्तराष्ट्रीय अवार्ड अगर वह बटोर लायं तो कोई हैरानी नहीं होगी..

और आखिर में कथानक जिसमें विशाल हमेशा चित हो जाते हैं.. इस बार ज़्यादा नियंत्रण में नज़र आते हैं.. कहानी में मौजूद दुनिया का माहौल बनाने में विशाल भारद्वाज का कोई जवाब नहीं.. शायद इस वक़्त के सारे फ़िल्मकारों में वे सबसे अच्छा महौल बना सकने की क्षमता रखते हैं.. मगर जब कहानी सुनाने की और ड्रामा की बारी आती है.. वे लड़खड़ा जाते हैं.. मकड़ी की बात न करें.. उसमें दूसरे मामले थे.. मक़बूल में भी यही हुआ और ओंकारा में भी.. कमाल का माहौल बनाया गया.. मध्यांतर तक फ़िल्म ऐसी जादुई समा बाँधे रहती है कि आप को लगता है कि बवाल है बाबू बवाल.. मगर इन्टरवल के बाद कहानी को आगे बढ़ाते हुए विशाल को पता नहीं क्या हो जाता.. वे ऐसे गिरते पड़ते हुए चलते हैं.. जैसे कोई ज़बरदस्ती उनसे ड्रामा करवा रहा हो.. और उस ड्रामा में उनकी कोई श्रद्धा कोई भरोसा न हो..

ब्लू अम्ब्रेला में भी ये समस्या है.. मगर इतनी कम कि मैं उस का ज़िक्र सिर्फ़ इसलिए कर पा रहा हूँ क्योंकि मैं उसे पहले ही मक़बूल और ओंकारा में चिह्नित कर चुका हूँ.. इस फ़िल्म के आखिर में नन्दू परचूनी का समाज द्वारा बहिष्कार और उसका दुख थोड़ा ज़्यादा खिँच गया लगता है..साथ ही छतरी खो जाने के बाद बिनिया की भावानात्मक जगत का प्रतीकात्मक चित्रण भी.. हो सकता है वह लड़की की अभिनय क्षमताओं की सीमाओं के चलते भी किया गया हो.. मगर बिनिया के दुख को दिखाने के और भी तरीके हो सकते थे.. जो फ़िल्म के मूड के साथ तालमेल रखते.. और बचपन की जिस मासूमियत और भारहीनता के साथ आप शेष फ़िल्म का आनन्द ले रहे होते हैं इन हिस्सों पर आ कर वह जादू टूट जाता है.. और फ़िल्म आप को भारी लगने लगती है..

मेरे इस महीन पाठ से ज़रा भी हतोत्साहित मत होइये.. मैं फिर कहता हूँ.. कि यदि हिन्दी फ़िल्मों की नकली, हिंसक और बाज़ारू दुनिया से आप तंग आ चुके हैं और हिन्दी फ़िल्म वालों के खिलाफ़ आप के मन में गहरा आक्रोश है.. तो इस फ़िल्म को ज़रूर देखिये.. हो सकता है कि फ़िल्मों की रंजकता और किसी संसार को सच्चाई से दिखा सकने की उनकी क्षमता पर फिर से भरोसा जाग जाए.. एक ईमानदार कोशिश है जिसे देख कर आनन्द लिया जाना चाहिये.. अफ़सोस यह है कि मेरे अलावा हॉल में और पन्द्रह लोग ही इस आनन्द का पान करने मौजूद थे..

- अभय तिवारी

8/06/2007

ला पेतित जेरुसलेम

डाइरेक्टर: कारिन आलबू
साल: 2005
अवधि: 96 मिनट
रेटिंग: ***

पैरिस के सबर्ब का एक निम्‍नवित्‍तीय हिस्‍सा है जिसे छोटे जेरुसलेम का नाम मिला हुआ है. टाइटल्‍स के बाद कैमरा धीमे-धीमे, पियानो के दबे संगीत के साथ, इसी दुनिया में उतरता है. छोटे, घेट्टोआइज़्ड ज्‍युइश समुदाय के रीत-रिवाज़ों से गहरे जुड़ी, अट्ठारह वर्षीय लौरा दर्शन की स्‍टूडेंट है, कांट के नक़्शे-कदम पर रोज़ एक तयशुदा रास्‍ते पर बिला नागा अपने टहल के लिए निकलती है. ट्युनिशिया से फ्रांस आकर अपनी दुनिया खड़ी करने की कोशिश में जुटे इस परिवार में धर्म और विश्‍वास का विशेष महत्‍व है. चार छोटे-छोटे बच्‍चों की मां- लौरा की बड़ी बहन मातिल्‍दे का पति आरियल समुदाय की चर्यायों में विशेष सक्रिय भी है. मां ट्युनिशिया के अपने बचपन वाले दिनों के ढेरों विश्‍वास को इतनी दूर पैरिस के सबर्ब में अब भी जिलाये रखने के तरीके जानती है. मगर परंपरा के इन भारी तानेबानों के बीच- खुद काफ़ी मज़बूत धार्मिक आस्‍था रखनेवाली लौरा की दुनिया, एक अनपेक्षित अश्‍वेत (लड़का अल्‍जीरिया से भागकर आया अश्‍वेत ग़ैरक़ानूनी आप्रवासी है) प्रेम के राह में चले आने पर अचानक कैसे तक़लीफ़देह सवालों का सामने करने का सबब बनती है, ‘ला पेतित जेरुसलेम’ इसी का एक्‍सप्‍लोरेशन है.

एक सधी, दुरुस्‍त अनाटकीय चाल में चलता अच्‍छा-प्‍यारा-सा मानवीय सिनेमेटिक दस्‍तावेज़. 2005 में फ़ि‍ल्‍म फ्रेंच सिंडिकेट ऑव सिनेमा क्रिटिक्‍स की ओर से श्रेष्‍ठ पहली फ़ि‍ल्‍म व कान फ़ि‍ल्‍म समारोह में श्रेष्‍ठ पटकथा के पुरस्‍कार से नवाजी जा चुकी है. फ़ि‍ल्‍म की निर्देशिका कारिन आलबू के मां-पिता अल्‍जीरिया से थे. ‘ला पेतित जेरुसलेम’ उनकी पहली फ़ि‍ल्‍म है. एक करियर की बहुत ही अच्‍छी शुरुआत.

8/01/2007

मिकालेंजेलो व इंगमार की विदाई..



अंतोनियोनी ने 94 वर्ष का लंबा जीवन जिया, बर्गमैन 89 के थे. अंतोनियोनी ने देर से शुरुआत की, या शुरू करने का मौका मिला (पहली फीचर ‘क्रोनाका दि उन अमोरे’ बनाते समय उनकी उम्र 38 वर्ष थी. दस साल बाद कान में ‘लावेंतुरा’(1960) के साथ अंतर्राष्‍ट्रीय प्रसिद्धी ने भी उनसे बहुत फ़ि‍ल्‍में नहीं बनवायीं, जबकि बर्गमैन आजीवन एक पैर थियेटर में फंसाये रखने के बावजूद ज्‍यादा प्रॉलिफिक थे. दोनों को अपने जीवन में ढेरों आलोचना मिली, तो साथ ही दोनों ने मानव मन के अंतर्लोक, उसकी जटिल-गुंफित दुनिया को टटोलते निजी सिनेमा को एक अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान व ऊंचाई दी. साठ व सत्‍तर के दशक के विश्‍व सिनेमा व्‍युइंग को मार्मिक बनाये रखा. अजब संयोग है दो दिन पहले, 30 जुलाई को यह दोनों ही जायंट हस्तियां एक साथ संसार से विदा हुईं. साठ के दशक के वाइब्रेंट पर्सनल सिनेमा का जैसे एक तरह से पटाक्षेप हुआ.

मिकालेंजेलो अंतोनियोनी के लिए यहां व इंगमार बर्गमैन के व्‍यक्तित्‍व व कृतित्‍व पर ज्‍यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करें.