10/30/2007

नो स्मोकिंग



साल: २००७
भाषा: हिन्दी
लेखक/ निर्देशक: अनुराग कश्यप
रेटिंग:*
अवधि: १२० मिनट


अनुराग कश्यप की नो स्मोकिंग बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह फ़्लॉप है। मुझको और मेरे मित्र को मिलाकर आज दोपहर के शो में कुल आठ लोग थे। किसी भी फ़िल्मकार के लिए दुःखद है यह, और खासकर अनुराग के लिए तो और भी जिन्हे मैं बहुत ही काबिल फ़िल्मकार मानता हूँ। उनकी फ़िल्म ब्लैक फ़्राईडे को मैं पिछले सालों में देखी गई सबसे बेहतरीन फ़िल्म समझता हूँ। मगर नो स्मोकिंग निराशाजनक है। एक स्वर से सभी समीक्षकों ने इसे नकार दिया है और दर्शको का हाल तो पहले ही कह दिया।

कहा जा रहा है कि अनुराग की अतिरंजना है यह फ़िल्म- इनडलजेंस। सत्य है आंशिक तौर पर। मगर उच्च कला, कलाकार की अतिरंजना ही होती है। जहाँ कलाकार सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी कल्पित संसार के प्रति प्रतिबद्ध होता है, और दूसरे के लिए उसका संसार कितना सुगम होगा इसकी चिंता नहीं करता। मेरा निजी खयाल तो यह है कि अनुराग अपनी अतिरंजना के स्तर एक तल और ऊपर ले जाते तो शायद फ़िल्म बेहतर बनती। अभी यह बीच में कहीं अटक गई है। ना तो यह अपने सररियल ट्रीटमेंट के कारण दर्शकों की एक सीधी सादी कहानी सुनने की भूख को पूरा करती है और न ही यथार्थ के बहुस्तरीय स्वरूप की परतें को अपनी बुनावट में उघाड़ने का कोई प्रयत्न। उलटे एक सरल रूपक के चित्रण में नितान्त एकाश्मी बनी रहती है। जिसकी वजह से सामान्य दर्शक और कला प्रेमी दोनो ही मुतमईन नहीं होते। फ़िल्म की असफलता इस बात में नहीं है कि यह आम दर्शक के लिए कुछ ज़्यादा जटिल बन गई या वित्तीय पैमाने पर चारों खाने चित है बल्कि अपने मूल मक़सद- अपने दर्शक तक अपने संदेश का अपनी कलात्मक एकता में संप्रेषण- में नाकामयाब रही है।

अपनी असफलता के बावजूद अनुराग ने हिस्सों में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। बाबा बंगाली के पाताल-लोक का चित्रण देखने योग्य है। पर उनका आरम्भिक और आखिरी उजबेकी बरफ़ीले मैदानों का स्वप्न कोई प्रभाव नहीं छोड़ता। खैर! अब उनकी अगली फ़िल्म का इंतज़ार रहेगा।

-अभय तिवारी

जब वी मेट





भाषा: हिन्दी

साल: २००७

लेखक/निर्देशक:इम्तियाज़ अली

रेटिंग:**

उदीयमान निर्देशक इम्तियाज़ अली की पहली फ़िल्म ‘सोचा न था’ भी कुछ छोटी-मोटी कमियों के बावजूद एक ऐसी ताज़गी से भरी फ़िल्म थी जो किसी नए फ़िल्मकार से ही अपेक्षित होती है। मगर अपनी दूसरी फ़िल्म ‘जब वी मेट’ से उन्होने अपने भीतर की कलात्मक ईमानदारी का मुज़ाहिरा कर के फ़िल्म इंडस्ट्री के मठाधीशों के चूहे जैसे दिल को भयाकुल हो जाने का एक बड़ा कारण दे दिया है। क्योंकि वे हर सफल व्यक्ति की तरह वे दूसरों की सफलता की धमक से डरते हैं।

मैं उनके दिल को चूहेसम बता रहा हूँ क्योंकि करोड़पति अरबपति होने के बावजूद उनके भीतर अपनी ही बनाई किसी पिटी-पिटाई लीक छोड़कर कुछ अलग करने का साहस नहीं है। चूंकि पैसे के फेर में अपने दिल की आवाज़ सुनने का अभ्यास तो खत्म ही हो चुका है यह उनकी फ़िल्मों से समझ आता है। और दूसरों की दिलों की आवाज़ पर भरोसा करने की उदारता भी उनमें नहीं होती इसीलिए किसी नए को मौका देने के बावजूद उसकी स्वतःस्फूर्तता को लगातार एक समीकरण के अन्तर्गत दलित करते जाते हैं।

जब वी मेट एक रोमांटिक फ़िल्म है। एक लम्बी परम्परा है हमारे यहाँ रोमांटिक फ़िल्मों की। मगर पिछले सालों में मैने एक अच्छी रोमांटिक फ़िल्म कब देखी थी याद नहीं आता। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ‘कुछ कुछ होता है’ को मात्र मसाला फ़िल्में मानता हूँ, उसमें असली रोमांस नहीं है। असली रोमांस देखना हो तो जा कर देखिये जब वी मेट।

-अभय तिवारी