12/24/2007

तारे ज़मीन पर

अपने देश में नेकनीयती और साफ़गोई का ऐसा भयानक दलिद्दर है कि एक आदमी भीड़ से हटकर ज़रा भी अलग रास्‍ते पर पैर रखे ऐसा हल्‍ला होने लगता है मानो परमहंस का नया अवतार हो रहा हो, या गांधी बाबा नया आश्रम खोलनेवाले हों! फिर वह आदमी आमिर खान जैसा बड़ा, सेलेक्टिव स्‍टार हो तब तो कहना ही क्‍या. ‘तारे ज़मीन पर’ के रिलीज़ होने के साथ पत्रिकाओं में दो पेज़ के फीचर से लेकर कवर स्‍टोरी तक हर जगह अभी कुछ ऐसी ही छटा फैल गई और बनी रहनेवाली है कि फ़ि‍ल्‍म कैसी अद्भुत, और उसे सिरजनेवाली शख्‍सीयत कैसी अनोखी है! दिक़्क़त इन सुपरलेटिव्‍स की है, बाकी मामला दुरुस्‍त, स्‍वस्‍थ्‍य, खुशग़वार है. ‘तारे ज़मीन पर’ में तारे भी हैं और साफ़-सुथरी ज़मीन भी. आमिर खान की पहली डायरे‍क्‍टोरियल कोशिश है तो उसे ज़रा ऊंची आवाज़ में ताली सुनने का हक़ बनता भी है..

आमिर पॉपुलर सिनेमा के आदमी हैं और पॉपुलर सिनेमा की उनकी जो, जैसी समझ होगी उस पैरामीटर्स में कंसिस्‍टेंट रहते हुए आमिर ने एक ठीक-ठाक मनोरंजक और समझदार फ़ि‍ल्‍म बनाई है. दर्शील सफारी एक सुलझा और समझदार बच्‍चा है. पारंपरिक रूप से सफल बच्‍चे जो सबकुछ कर सकते हैं, उन्‍हें न कर पाने के तनाव और दबाव में जीवन के साथ उसके संबंध व दुनिया को देखने के उसके अंदाज़ के मोह में हम गिरफ़्तार बने रहते हैं, और मनोरंजक तरीके से बने रहते हैं. फ़ि‍ल्‍म का फर्स्‍ट हाफ लगभग दर्शील के कौतुक देखते, उनमें उलझे कैसे गुजर जाती है आपको ख्‍़याल भी नहीं रहता. इंटरवल में आमिर की एक हें-हें, ठें-ठें गाने के साथ एंट्री होती है और हीरो की चिंताओं को एस्‍टेबलिश करने के चक्‍कर में स्क्रिप्‍ट फ़ि‍ल्‍म के असल नायक दर्शील को काफ़ी वक़्त तक चुप करा देती है. ठेंठे वाले गाने के बाद परेशान बच्‍चे के बारे में परेशान होता आमिर का राम शंकर निकुंभ एकदम-से गंभीर हो जाता है और फ़ि‍ल्‍म का यह तीस-चालिस मिनट का ‘आमिरी’ समय उतना एंटरटेनिंग नहीं, उसके बाद फ़ि‍ल्‍म फिर अपना लय पकड़ती है और आखिर तक पकड़े रहती है. अंतिम क्षणों के करीब सिनेमा हॉल के अंधेरे में ज़रा-सी मानवीयता कैसे बचाये रखी जाये के लिए आंसू बहाते हुए हम भोले, भावुक दर्शक‍ क्षणिक तौर पर सुखी बन जाते हैं.

दर्शील सफारी फ़ि‍ल्‍म की उपलब्धि है. उसकी स्‍वाभाविकता, स्‍पॉंटेनिटी, उसकी मैच्‍यूर समझदारी- सब. फिल्‍म के काफी सारे हिस्‍से काफी ढंग से लिखे और एक्‍ट भी किये गए हैं. दर्शिल का स्‍कूल बंक करके आवारा भटकना और दर्शिल के पैरेंट्स से मिलने निकले आमिर की सड़क यात्रा छोटे, दिलचस्‍प सिनेमेटिक मोमेंट बनते हैं. हालांकि दर्शिल के पिता और बोर्डिंग के अध्‍यापकों को विलेन बनाने के कैरिकेचर से बचा जाता तो शायद फ़ि‍ल्‍म और उम्‍दा बनती. गाने कहानी में ठीक से गुंथे हुए हैं और उनके साथ अच्‍छी बात है कि उनमें ऑर्केस्‍ट्रेशन का हल्‍ला नहीं है. उनमें एक कथात्‍मकता है लेकिन बुरी बात यह भी है कि उनमें मेलॅडी की अमीरी नहीं. तो अपने खत्‍म होने के साथ वे उतनी ही आसानी से भुला भी दिये जाते हैं. शायद यह एक कॉंशस प्रयोग हो और खुद में ऐसी बुरी बात न भी हो. सेतु का कैमरावर्क अच्‍छा, फ्रेंडली, एक्‍सेसिबल और कल्‍पनाशील है. वैसा ही प्रॉडक्‍शन डिज़ाईन और एनिमेशन का इस्‍तेमाल भी. अपने व अपने बच्‍चे पर उखड़ने के बाद आप जाकर फिल्‍म देख आयें, गिनकर पांच दफ़ा आंख के कोनों पर नमी महसूस करें, देखिए, मज़ा आयेगा. इससे अलग काम की एक और बात. . जहां तक अपने यहां समस्‍या-प्रधान चरित्रोंवाली संजय भंसाली की 'ब्‍लैक' टाइप फ़ि‍ल्‍मों की बात है, 'तारे ज़मीन पर' उससे दस नहीं तीस कदम आगे है और सिर्फ़ इसी बिना पर उसे मुहब्‍बत से देखी जानी चाहिए.

12/23/2007

दो फ़ि‍ल्‍म और आधी..

Two and Half Films…

Having been stuck by monetary troubles, later on rescued and taken to theatres by UTV ‘Khosla ka Ghosla’ (2006) is quite an amusing and titillating film about life and living in Delhi. Other than the last half an hour or so when the elder son plans and executes to get back the money stolen from his family by the baddie land mafia, the film runs pretty smoothly with nice character etchings and intelligent dialogues. Till date the six films that Jaideep Sahni has written, three (Company, Chak de! India and Khosla ka Ghosla) are quite decent accomplishment. Even actors do their part pretty all right. Its first film for director Dibakar Banerjee. We should hope to see more interesting outputs from him in coming years.

The second film, ‘Manorama Six Feet Under’ is a also a first film for director Navdeep Singh written with Devika Bhagat. Though considering it to be a thriller, the writing could have been more tight and intriguing. Writers mix up the laid back set-up with the story telling as well and the ploy kills the viewers’ interest for the whole two-third of the film. The film moves tiredly and a flat performance by Abhay Deol hardly infuses with any warmth or intelligence. Though it’s a pleasing to watch Vinay Pathak, Gul Panag and Raima Sen in cameo roles. The camerawork by Arvind Kannabiran is very impressive. But watching the film one feels one is in company of a good and sensitive director. Lets wait and see what twists and turns Navdeep gives us in future.

The remaining half film that I am going to write about is not by a first timer. Its more expensive, more ambitious but after first three minutes or so, one realizes its going to be a hopeless journey. In fact it doesn’t even become any journey as it just refuses to go anywhere. Whatever the prmos, producer say or media blabbers about, the film doesn’t have a story. It doesn’t even have a sequence worth mentioning about. The whole thing is just a compilation of glossy images hopelessly going nowhere. Well, it’s pretty ‘Khoya Khoya…’ whatever.

By Jainarain

12/11/2007

कॉफ़ी एंड सिगरेट्स..

पोलिश मूल के अमरीकी जिम जारमुश ने न्‍यूऑर्क फ़ि‍ल्‍म स्‍कूल में पढ़ाई के दौरान ही अपने हिस्‍से की शॉर्ट फिल्‍म को 15,000 डालर्स के फिसड्डी बजट में एक फीचर की तरह शूट किया ().. पढ़ाई के बाद कुछ वक़्त फ्रांस में गुजारने के बाद जब वापस अमरीका लौटे तो विम वेंडर्स को शूटिंग करते हुए पकड़ा, अपनी फिल्‍म की शूटिंग में बझे वेंडर्स से रॉ स्‍टॉक हासिल किया और 1984 में अपनी पहली व्‍यवस्थित फ़ि‍ल्‍म बनाई- ‘स्‍ट्रेंजर देन पैराडाइज़’- जो कान में कैमरा दा’र के पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत हुई. अस्‍सी के शुरूआत से सिनेमा में सक्रिय जारमुश मुख्‍यधारा से बाहर उन फ़ि‍ल्‍मकारों में हैं जो अब भी काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों को जिंदा रखे हुए हैं. आइए, उनकी फीचर ‘कॉफ़ी एंड सिगरेट्स’ (2003) की कुछ क्लिपिंग्‍स देखते हैं..

फ़ि‍ल्‍म का पहला एपिसोड:



टॉम वेट्स और इगी पॉप एपिसोड:



कज़न्‍स एपिसोड. एक सफल एक्‍टर की ज़रा अपने प्रति सुरक्षा देखिए:



मोर कज़न्‍स:



जुड़वां एपिसोड:



नेट पर यहां द गार्जियन का लिया जारमुश का एक इंटरव्‍यू.

(ऊपर टॉम वेट्स के साथ जिम जारमुश)

12/08/2007

पुरानी फ़ि‍ल्‍म रीविजिटेड..

बचपन में देखी, और देखकर लहालोट हुई फ़ि‍ल्‍मों पर दुबारा लौटना, देखना ख़तरनाक खेल है. अब तक मेरा अनुभव तो यही रहा है (हो सकता है सिनेमा से ज़रा ज़्यादा जुड़े रहने और उसके विविध पहलुओं की छांट-छटाई के स्‍वाभाविक अभ्‍यास ने यह ‘खेल’ मेरे लिए थोड़ा ज्यादा निर्मम बना दिया हो, मगर कमोबेश ऐसे अनुभव अन्‍य लोगों को भी हुए ही होंगे. फिर, यह भी सच है कि कुछ फ़ि‍ल्‍में- इसलिए कि उनकी फ़ि‍ल्‍ममेकिंग विशिष्‍ट है- सदाबहार बनी भी रहती हैं). ख़ैर, मैं बचपन की देखी फ़ि‍ल्‍मों के ‘री-विजिट’ के ख़तरों की बाबत कह रहा था. और विनम्रता के साथ ज़ोर देकर कहना चाह रहा हूं कि इन मान्‍यताओं को किसी व्‍यक्ति या काम-विशेष के विरूद्ध न समझा जाये. तो पहले भी ऐसे मौके आये थे. राजेश खन्‍ना और नन्‍दा की एक थ्रिलर थी, ‘द ट्रेन’. बचपन में देखने पर बड़ा मज़ा आया था कि क्‍या धांसू स्‍टंट हैं, कहानी का कसाव है इत्‍यादि-इत्‍यादि. गाने तो बढ़ि‍या थे ही (गुलाबी आंखें जो तेरी देखीं शराबी ये दिल हो गया; किसलिए मैंने तुझे प्‍यार किया, किसलिए इक़रार किया, सांझ-सबेरे तेरी राह देखी), बहुत वर्षों बाद कहीं से सीडी लेकर फ़ि‍ल्‍म लगाई, फिर वही मज़ा लेने की कोशिश की तो हाथ-पैर फूलने लगे! चेतन आनंद ने इन्‍द्राणी मुखर्जी और राजेश खन्‍ना के साथ एक फ़ि‍ल्‍म की थी- आख़ि‍री ख़त, चेतन साहब का अपना ‘बेबीज़ डे आऊट’. गाने उसमें भी मस्‍त थे- बहारों मेरा भी जीवन संवारो, भूपिंदर का ‘रुत जंवा, जवां, रात मेहरबां’), बचपन में खूब आंखें गीली हुई थीं, दुबारा देखने पर चेतन साहब की पूरी फिल्‍ममेकिंग रहस्‍यवाद लग रही थी. लग रहा था कैमरा चालू करने के बाद भूल गए हों कि इन द फ़र्स्‍ट प्‍लेस चालू किया क्‍यों था और चालू कर दिया तो ‘कट’ जैसी कोई चीज़ बोली भी जाती है!

ओपी रल्‍हन एक कॉमेडियन हुआ करते थे, धर्मेंद्र और मीना कुमारी को लेकर एक सोशल ड्रामा बनायी थी (डायरेक्ट्रियल डेबू)- फूल और पत्‍थर. धमाल फ़ि‍ल्‍म थी, धमाल चली भी थी. दुबारा प्‍लेयर पर चढ़ाने के बाद हमसे दस मिनट चलाते नहीं चली. इस श्रृंखला में और नाम हैं- मनोज कुमार की ‘पहचान’ (बस यही अपराध हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्‍यार करता हूं.. पाक़ि‍ज़ा को फेल करके उस साल फिल्‍मफेयर के अवार्ड्स हथियानेवाली फिल्‍म पहचान ही थी!), चेतन आनंद की ‘हंसते ज़ख़्म’, विजय आनंद की ‘तेरे मेरे सपने’, यश चोपड़ा की ‘इत्‍तेफ़ाक’, कि कभी मज़ा आया था लेकिन दुबारा देखने पर क्‍यों मज़ा आया था का सवाल पहेली बनकर रह गया. यही बात विमल राय की ‘मधुमती’, ‘देवदास’, के आसिफ के ‘मुग़ले-आज़म’ और साऊथ की ‘राम और श्‍याम’ और रमेश सिप्‍पी के ‘शोले’ देखने पर नहीं होता. मगर कल फिर खेल में फंस गया और मुंह की खायी.

जब आयी थी तो मैंने ही नहीं, बहुतों ने आनन्‍द लिया था और फिल्‍म को हिट बनायी थी. बासू चटर्जी की ‘रजनीगंधा’. मन्‍नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित अमोल पालेकर और विद्या सिन्‍हा की पहली, प्रेम त्रिकोण फिल्‍म (1974). कल फिल्‍म दुबारा देखना हुआ तो मन में बार-बार यही बात आ रही थी कि कुछ फिल्‍में अपने समय का मिज़ाज भले पकड़ती हों, होती निहायत ‘डेटेड’ हैं, और बतौर फिल्‍म उनका भविष्‍य नहीं होता! माने स्क्रिप्‍ट और संवाद ऐसे थे कि उसे पढ़ने का ख़्याल आते बोरियत होने लगे. बहुत सारे संवाद दो नहीं, लगता था चार-चार बार बोले जा रहे हैं. फिर हंसी और उदासी के बने-बनाये चार एक्‍सप्रेशंस. केके महाजन का कैमरा वर्क ऐसा मानो आज के सीरियल एपिसोड की फिल्‍म बारह दिन में छापने की हड़बड़ी हो. कोई कल्‍पनाशीलता नहीं. सब बड़े सीधे-सपाट इमेज़ेस. कभी-कभी सलिल चौधरी के बैकग्राउंड स्‍कोर और मुकेश का ‘कई बार यूं ही देखा है..’ से अलग पूरी कसरत अब एक भयानक थकान की तरह याद रहनेवाली है. जय हो बचपन की मधुर स्‍मृतियां..

12/06/2007

प्‍यार करने के ख़तरनाक नतीजे..

सत्‍तर के दशक के फ्रंचेस्‍को रोज़ी, बेर्तोलुच्‍ची के इतालवी सिनेमा का वर्तमान बेहद निराशाजनक है. पिछले तीसेक वर्षों से रहा है. मोनिका बेलुच्‍ची और जुसेप्‍पे तोरनातोरे के सेंसुअस सिनेमा (‘इल चिनेमा परादिज़ो’, ‘मलेना’) ने भले अपने चहेते बनाये हों, आठवें दशक की शुरुआत से- नान्‍नी मोरेत्‍ती और फ्रांको मरेस्‍कोदनियेले चिप्री जैसे चंद नामों से अलग शायद ही ऐसे इतालवी निर्देशक बचे हों, फ़ि‍ल्‍म-लुभैयों की अंतर्राष्‍ट्रीय बिरादरी जिसका बेसब्री से इंतज़ार करती हो. जो कुछेक महत्‍वपूर्ण काम हुआ है, सब मुख्‍यधारा और रोम के दक्षिण में हुआ है. साऊथ का सिसिलियन कनेक्‍शन. प्राचीनता की जड़ों व उत्‍तर-औद्योगिक समाज के पेचिदे रिश्‍तों की अपने-अपने तरीकों से, इ‍तमिनान से पड़ताल करता सिनेमा. दक्षिण के इन नये निर्देशकों में पाओलो सोर्रेंतिनो भी एक ख़ास नाम है (पैदाइश नेपल्‍स, 1970). अब तक छह फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं. मैंने जो देखी, ‘द कन्सिक्‍वेंसेज़ ऑव लव’ (अंतर्राष्‍ट्रीय अंग्रेजी शीर्षक) वह 2004 में बनाई थी. रोमन भराव के मध्‍य अकेलापन. प्रेम का अकाल और प्रेमजन्‍य दुस्‍साहस की धीमे-धीमे बुनती सनसनियों के आधुनिक बिम्‍ब.

पिछले दिनों मिली-जुली कुछ और फ़ि‍ल्‍में देखीं. 1973, पैरिस, फ्रांस में जन्‍मे डैनिश सिनेकार दागुर कारि की 2005 में बनाई ‘डार्क हॉर्स’ (अंतर्राष्‍ट्रीय अंग्रेजी शीर्षक). कुछ-कुछ जिम जारमुश की काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों के असर वाली कारि की फ़ि‍ल्‍म ज्‍यादा सरल व कॉमिक है. साधारणता का औसत जीवन जीते नायक की छोटी-छोटी अस्तित्‍ववादी परेशानियां एक खूबसूरत ग्राफ़ खड़ा करती हैं.

फिर ऑरसन वेल्‍स की ‘मिस्‍टर अर्काडिन’. लम्‍बी अवधि तक शूटिंग व हॉलीवुड स्‍टुडियो के टंटों में फंसी रही मुश्किल और परतदार फ़ि‍ल्‍म (जैसीकि वेल्‍स की फ़ि‍ल्‍में होती हैं. बहुतों को बहुत अच्‍छी लगती है तो ऐसे भी ढेरों स्‍वर हैं जो अर्काडिन को ‘सिटिज़न केन’ का कमतर ऑफ़शूट बताते हैं. पर्सनली मेरे लिए अच्‍छी कसावट की अच्‍छी वेल्सियन फ़ि‍ल्‍म.

जर्मनी के हरज़ोग की 1977 की ‘स्‍त्रोज़ेक’. दो लात खाये चरित्रों का इस उम्‍मीद में अमरीका पलायन कि वह उन्‍हें अमीर व सुखी कर देगा. फिर सपनों के देश का दु:स्‍वप्‍न में बदलना. टिपिकल, रिच हर्जोगियन ईनसाइट.

12/01/2007

माइकल मूर की सिको

साल: 2007
भाषा: अंग्रेजी
लेखक-निर्देशक: माइकल मूर
रेटिंग: ***

बहुत बार गांव में रहनेवाला व्‍यक्ति बाहरी संसार को सिर्फ़ किवदंतियों और उड़ी हुई सूचनाओं के सहारे जानता है. बाहरी जगहों की झूठी कहानियां ही उसका निजी यथार्थ बनी रहती हैं. माइकल मूर अपनी ताज़ा डॉक्‍यूमेंट्री ‘सिको’ में समूचे अमरीकी मानस को एक ऐसे बड़े गांव की ही तरह दिखाते हैं.. जहां सरकार (निक्‍सन के ज़माने से) और राक्षसी मेडिकल इंश्‍युरेंस कॉरपोरेशंस की मिली-भगत से हेल्‍थ केयर के क्षेत्र में साधनहीन तो दूर, ठीक-ठाक मध्‍यवर्गीय परिवार भी अपनों को कुत्‍तों की मौत मरता देख रहे हैं और स्‍तब्‍ध हैं.. मगर आधुनिक जीवन के इस दुश्‍चक्र से बाहर आने का जिन्‍हें विकल्‍प नहीं दिखता.. जबकि अमरीका के ठीक पड़ोस कनाडा में हेल्‍थ केयर हर नागरिक के लिए मुफ्त है (मूर कनाडा के बाद हमें इंग्‍लैण्‍ड और फ्रांस घुमाते हैं, और दिखाते हैं कि वहां भी कनाडा की ही तरह नागरिकों के स्‍वास्‍थ्‍य का जिम्‍मा सरकार है, और सेवायें मुफ़्त है).. जबकि एक आम अमरीकी की पारंपरिक नज़र में कनाडा, इंग्‍लैण्‍ड, फ्रांस अमरीका की तुलना में हास्‍यास्‍पद मुल्‍क हैं.. क्‍यों? फिल्‍म के बीच कहीं मूर मज़ेदार सवाल करते हैं, कहीं इसीलिए तो नहीं कि हमारे शासक नहीं चाहते कि हम इन मुल्‍कों के अच्‍छे पहलू देखें और अपने जीवन में उसकी कामना करें?..

दो घंटों की इस बड़ी डॉक्‍यूमेंट्री में, जैसाकि मूर की अन्‍य फ़ि‍ल्‍मों के साथ भी है, ख़ास रवानी और रोचकता बनी रहती है. बीच-बीच में ऐसे हिस्‍से आते हैं ठहरकर सोचने का मन करे. फ़ि‍ल्‍म में एक दृश्‍य है जब एक बड़ा कॉरपोरेट अस्‍पताल पैसा भर पाने में लाचार मरीजों को गाड़ि‍यों में भर बाहर सड़क पर ठेल आता है. वॉयस-ओवर में मूर सवाल करते हैं: “May I take a minute to ask a question that has been on my mind? Who are we? Is this what we've become? A nation that dumps its own citizens like so much garbage on the side of the curb, because they can't pay their hospital bill?... आगे कहते हैं: “I always thought and believe to this day that we're good and generous people. This is what we do when somebody's in trouble.. They say that you can judge a society by how it treats those who are the worst-off. But is the opposite true? That you can judge a society by how it treats its best? Its heroes?”

अमरीकी भलमनसी की तस्‍वीरों से होती हुई फ़ि‍ल्‍म कुछ उन आम फायर फाइटरों के जीवन में झांकती है जिन्‍होंने 9/11 के दरमियान महीनों मलबों के भीतर जनसेवा में गुजारे थे, मलबों के भीतर गुजारे समय के असर में पांच वर्षों बाद अब जब वे अजीबो-गरीब बीमारियों से ग्रस्‍त हैं तो सरकार ने उनकी किसी भी तरह की मदद से हाथ खींच लिए हैं. आतंकवादियों के रख-रखाव वाला सबसे बड़ा अड्डा ग्‍वांतानामो बे में बीमारों की देखरेख के लिए सब सुविधाएं हैं, सरकार ने इसका विशेष इंतज़ाम किया है, लेकिन 9/11 के आम हीरोज़ को उसने उनके हाल पर छोड़ दिया है..

एक अच्‍छे एक्टिविस्‍ट फ़ि‍ल्‍ममेकर की तरह मूर यहां एक मज़ेदार काम करते हैं. ऐसे इन सारे मरीजों को किराये की तीन नावों में लाद सीधे ग्‍वांतानामो बे पहुंचते हैं कि भइया, ख़ासम-खास आतंकवादियों की देखभाल कर रहे हो तो अपने हीरोज़ की भी करो! जब ग्‍वांतानामो में दाल नहीं गलती तो मूर एक और नाटकीय कदम उठाते हैं.. सीमावर्ती जल से लगे वहीं से क्‍यूबा में प्रवेश करते हैं.. वहां जाने पर एक और मज़ेदार बात खुलती है कि वहां भी स्‍वास्‍थ्‍य सेवा मुफ्त है, और जिस एक खास दवा के लिए मरीज़ 120 डॉलर भर रहा था, वहां वह महज 6 सेंट में उपलब्‍ध है!

क्‍यों है अमरीका में मेडिकल जायंट कॉरपोरेशंस का ऐसा दबदबा, खौफ़, खुली लूट? अपने नागरिकों के साथ सरकार का दो कौड़ि‍यों का व्‍यवहार? सिर्फ़ इसीलिए कि लुटेरों से उसकी सीधी मिली-भगत है, या इसलिए भी अमरीकी सिस्‍टम अपने नागरिकों को हमेशा खौफ़ और आतंक के माहौल में रखती है? टॉनी बेन, पूर्व इंगलिश सांसद, नेशनल हेल्‍थ केयर का इतिहास किस्‍सा बताते हुए एक जगह लोकतंत्र के बारे में दिलचस्‍प टिप्‍पणी करते हैं- “I think democracy is the most revolutionary thing in the world. Far more revolutionary than socialist ideas, or anybody else's idea. But if you have power, you use it to meet the needs of your community. And this idea of choice that Capitalism talks about all the time, ‘you gotta have a choice’, Choice depends on the freedom to choose. And if you're shackled in debt, you don't have a freedom to choose. It seems that it benefits the system, If the average working person is shackled and is in debt? Yes, because people in debt become hopeless, and hopeless people don't vote. See, they always say that everyone should vote But I think, if the poor in Britain or the United States turned out and voted for people representing their interests, it would be a real democratic revolution. So they don't want it to happen."

माइकल मूर का सिको संबधी एक इंटरव्‍यू: