6/16/2008

जाने वो कैसे लोग थे..

कंधे पर महंगा शॉल और जाने कौन मनीष-मलंग-कलंग मल्‍होत्रा स्‍टाईल के फूल-तारों वाली बुनकारी का कुरता धारे रितुपोर्नो घोष और करीयर में उजियारे हो रहे संजय-ओहो कला-भयी-मूर्तिमान-भंसाली के डिज़ाइनर क्‍लोथ्‍स के बनियाई आज के समय में पैरों में स्‍लीपर डाले वेनिस में मंच पर लियोने दोरो लेने चढ़े तारकॉव्‍स्‍की, या सनकियाये फेल्लिनी या बौद्धियाये घटक की कल्‍पना कितना असंभव लगती है. आज यह लोग होते तो फ़ि‍ल्‍म बना रहे होते, या एनडीटीवी पर ‘गुड लाइफ’ व ‘टाइम्‍स’ के टीप्‍स दे रहे होते? ऐसी सनक व सृजनयात्राओं की समाज व समय में जगह बची है? नहीं बची है तो वह दीवाना करनेवाला सिनेमा बचा रहेगा? क्‍योंकि फ़ि‍ल्‍म जो हो, नाइके के जूतों और एक चिकन हॉट डॉग की तरह ज़रा सा तृप्‍त कर ले, ऐसा मनोरंजन मात्र तो है नहीं.. उसे पगलई की खूराक चाहिए.. इन्‍हीं पगलहटों के बीच एक फेल्लिनीलोक का बुनना संभव होता है.. सवाल है समाज व समय को ऐसे फेल्लिनीलोक की अब कोई ज़रूरत बची है?.. लायंस ऑव पंजाब प्रेज़ेंट्स के लिखवैया अनुबव पाल की इस दिलफ़रेब कसकों पर एक नज़र फेर लीजिये..

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