7/08/2008

टीवी पर आज शाम सवा़ आठ बजे..

हड़बड़ की यह छोटी, सूचनात्‍मक पोस्‍ट उन मित्रों के लिए है जो घर पर टीवी और केबल के सुख से सुखी हैं (हैं?), और जिनके पास आज शाम थोड़ी मोहलत है. दरअसल 1966 में बनी- 'अल्‍जीरिया की लड़ाई' फ्रांसीसी शासन के खिलाफ़ अल्‍जीरिया के आत्‍मनिर्णय के अधिकार की तकलीफ़देह लड़ाई के गिर्द बुनी जिल्‍लो पोंतेकोर्वो की यह फ़ि‍ल्‍म किसी भी औपनिवेशिक शासन मशीनरी के काम करने के निर्मम तरीकों व साधनहीन लोगों के दुस्‍साहसी लड़ाइयों का एक अच्‍छा ताना-बाना बुनती है. उन गिनी-चुनी फ़ि‍ल्‍मों में है जो फिक्‍शन में डॉक्‍यूमेंटरी के तत्‍वों का सफलतापूर्वक इस्‍तेमाल कर सकी है, और इतने वर्षों बाद अभी भी 'डेटेड' नहीं हुई है.

मौका लगे तो आज शाम सवा आठ बजे यूटीवी वर्ल्‍डमूवीज़ पर ज़रूर देखें. फ़ि‍ल्‍म संबंधी एक अन्‍य लिंक.

7/04/2008

सोनार केल्‍ला.. और थोड़ा नया जापान और पुरानी इटली

पहले की छुटी रह गयी कुछ ख़ास फ़ि‍ल्‍मों में एक नाम जो था,सत्‍यजीत राय की ‘सोने का किला’ देखी. 1974 में बच्‍चों के लिए खुद की लिखी नोवेल्‍ला पर बनायी फ़ि‍ल्‍म की बेसिक कहानी यह है: मुकुल नामके एक बच्‍चे का अपने किसी पिछले जन्‍म को याद कर-करके उसके सुनहले स्‍केचेज़ उकेरता है. संतप्‍त परिवार की मदद को एक बड़े पैरासाइकोलॉजिस्‍ट डॉक्‍टर बच्‍चे को अपने संग लेकर उस जगह की खोज में राजस्‍थान निकलते हैं.. कि बच्‍चे का उसके अतीत से साक्षात करवा सके. डॉक्‍टर के पीछे-पीछे दो पुराने ठग भी राजस्‍थान की ओर निकलते हैं. कि बच्‍चे को डॉक्‍टर से अगवा करके बच्‍चे के स्‍मरण से चिन्हित ‘सोने’ के किले और वहां गड़े धन तक पहुंच सकें. मगर बच्‍चे और धन के पीछे निकलनेवाले ठग अकेले नहीं हैं, उनकी सूराग में अपने किशोर असिस्‍टेंट तपेश के साथ डिटेक्टिव फेलु दा भी राजस्‍थान की ओर निकलते हैं..

पूर्वजन्‍म की स्‍मृतियों के बवंडर, रेल और मोटरगाड़ि‍यों के सफर, और रहस्‍य-रोमांच के ताने-बानों के बीच राजस्‍थान जैसे विज़ुअल डेस्टिनेशन पर क्‍लाइमेटिक बिल्‍ड-अप. पश्चिम बंगाल सरकार के पैसों से बनी फ़ि‍ल्‍म जब रिलीज़ हुई थी तो लोगों ने ठीक-ठाक मात्रा में पसंद किया था, लेकिन पैंतीस वर्षों की दूरी पर अब फ़ि‍ल्‍म देखते हुए थोड़ा ‘डेटेड’ लग रही थी. स्क्रिप्‍ट में अगर कोई तनाव था भी तो सौमेंदु राय के कैमरे में कतई नहीं था. फ़ि‍ल्‍म के खत्‍म होने के बाद बच्‍चे के स्‍मरण का निदान हो जाता है, लेकिन मुझ दर्शक के स्‍मरण में क्‍या गहरी अनुभूति बनती-बची रहेगी, इसका मुझे संशय है.

इसी के आगे-पीछे 1962 में बनी एरमान्‍नो ओल्‍मी की ‘ई फिदन्‍ज़ाती’ (मंगेतर का बहुवचन क्‍या कहेंगे?) देखी. धीमे-धीमे एक गंवई दुनिया के औद्योगिकीकरण की पृष्‍ठभूमि में रोमान व विरह के तीखे इमेज़ेस. दूसरी एक अन्‍य फ़ि‍ल्‍म थी जापानी (2007 में बनी, निर्देशक: सातोशी मिकी)‘टोकियो में भटकन’. आपकी टोकियो में दिलचस्‍पी हो तो एक मर्तबा आप इस भटकन में भटक सकते हैं, वर्ना मन की गुत्थियों की भटकन के लिहाज़ से फ़ि‍ल्‍म में विशेष गहराई नहीं. यू-ट्यूब के पर चढ़े इस ट्रेलर से एक अंदाज़ ले लीजिये.