7/14/2009

अंतर्लोक के झमेलों की कैसी तो फ़ि‍ल्‍में.. कैसे फ़ि‍ल्‍मकार..

झमेलाबझे (डिसफंक्‍शनल) परिवारों के दु:ख.. कैसे-कैसे दु:ख.. देखने लगो तो फिर क्‍या-क्‍या दिखने लगता है, कहां-कहां नहीं दिखता! घटक की 'मेघे ढाका तारा' याद है? परिवारों के भीतर 'मुग़ले-आज़म' होता है न 'हम आपके हैं कौन', ज़्यादा कहानियां 'लिटिल मिस सनशाइन', 'फमिल्‍या रोदांते' और लुक्रेचिया मारतेल की 'द स्‍वांप', 'हेडलेस वूमन' के दायरों में घूमती हैं, लेकिन अंदर के टंटे जब और भी भयकारी हों तब? फिर क्‍या करे आदमी? और जब आदमी आदमी न हुआ हो बच्‍चा हो? जैसे 'द आर्ट ऑफ क्राइंग' का ऐलेन? झमझम बरसाती दोपहर में फ़ि‍ल्‍म देखी देखकर ऐलेन का अंतर्लोक समझने की कोशिश कर रहा हूं.

फिर ऐलेन से ज्यादा मर्मांतककारी तक़लीफ़ है ऐन की, इज़ाबेल कोइक्‍सेत का नाम नहीं सुना था, पहली फ़ि‍ल्‍म देखी, देखकर काम से दंग हूं..

या एंजेला शानेलेक की फ़ि‍ल्‍म 'नाखमिताग' देख रहा था फॉर्म में इस तरह की ट्रांसपरेंसी, ऐसी सधाई कोई कैसे हासिल करता है सोच-सोचकर उलझन हो रही है. हालांकि पिछले दिनों वॉंग जून-हो, लुकास मूदीस्‍सॉन, इज़ाबेल, एंजेला जैसे सलीमाकार अचक्‍के हाथ चढ़े इससे गदगद भी हूं..

7/10/2009

जय ज़्यां..

कभी ऐसा संयोग नहीं बना कि रेनुआर की काफी फ़ि‍ल्‍में एक साथ देखी. सब अभी तक देखी भी नहीं. और अलग-अलग जब देखना हुआ तो लंबे अंतरालों में हुआ. यूनिवर्सिटी के फ़ि‍ल्‍म क्‍लब में उन्‍हें पहली बार देखा था, लेकिन जाननेवाले न जानें मायेस्‍त्रो साहब की फ़ि‍ल्‍मोग्राफी बड़ी विशाल है, और हमारी तरह के मंदबुद्धि अब जाकर ज़रा समझ पा रहे हैं कि उनमें किस-किस तरह के छिपे भेद और कमाल हैं! अभी रात ही को उनकी एक और फ़ि‍ल्‍म पर नज़र पड़ी जिसमें कहानी जैसी कोई कहानी भी नहीं, बस इतना नचवैयों का एक धुनी मैनेजर है पैसों की तंगी और बीस झंझटों के बीच किसी तरह मूलान रूज़ पर अपना मेला जमाना चाहता है, बस, बुढ़ा रहे जां गाबीं के सहज अभिनय में इतनी सी ही है कहानी, मगर फिर कैसी तो तरल-गरल मानवीयता में नहायी हुई, ओह. ओह ओह ओह, कहां से रेनुआर के पास इतनी मानवीयता थी, माथे पर ज़ोर डालकर सोचते हुए लगता है बहुत ज़्यादा सरप्‍लस में थी..

सिनेमा कैसा चमत्‍कार है देखने के लिए तो लोग बहुत फ़ि‍ल्‍मकारों की मोहब्‍बत में रहते हैं, जीवन की मोहब्‍बत को सिनेमा में पढ़ने के लिए फ़ि‍ल्‍में देखनी हों और बार-बार उसमें डुबकी लगाते रहना हो तो संभवत: उसके लिए ज़्यां रेनुआर सबसे ऊंचे कद के सिलेमा-जीवनकार शाहकार हैं!

7/09/2009

खुद को समझायें बतायें क्‍या?..

भागाभागी में जीवन के कैसे दुर्योग हैं कि जिस दुनिया में आपका मन रमता है अब उसकी तक ज़रूरी नहीं खुद को ठीक-ठीक ख़बर रहे (वैसे मैं तो भागता भी कहां हूं? जो और जितना भागना है खुद से ही भागना है!). सिनेमा की रखता हूं फिर पता चलता है शायद नहीं रख सका हूं. अभी थोड़ा समय हुआ एक स्‍वीडिश फ़ि‍ल्‍म ‘तिलस्‍सामांस’ (साथ-साथ) पर नज़र गई तो पता चला 2000 की है हमारे अब जाकर हाथ लगी है. साथ ही यह भी पता चला लुकास मूदीस्‍सॉन इसके पहले ‘शो मी लव’ बना चुके हैं, ‘तिलस्‍सामांस’ के बाद ‘लिल्‍या 4 एवर’ वाली शोहरत कमा चुके हैं, और उसके बाद काफी निजी किस्‍म की चार और फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं. कहने का मतलब लगता है बीच मेले में खड़े रहते हैं और कितने मीत हैं उनके प्रीत पर नज़र नहीं पड़ती! कहां फंसी रहती है? कहीं तो रहती होगी जो ‘मेमरिज़ ऑव मर्डर’ के कोरियाई निर्देशक बॉंग जून-हो के काम त‍क पर भी नहीं पड़ी थी. सचमुच, कोई बताये खुद को बतायें क्‍या?

यह बॉंग जून-हो से एक बातचीत का लिंक है. यह एक दूसरा है. यह एक लुकास के साथ इंटरव्‍यू का लिंक है.

(ऊपर: 'मेमरिज़ ऑव मर्डर' का कोरियाई पोस्‍टर)

7/04/2009

वामोस, कॉम्‍पानियेरो

मुश्किल विषयों पर आसान-सी दिखती तरंगभरी फ़ि‍ल्‍म बना लेना कलेजे का काम होगा. लेकिन चिलीयन निर्देशक अलेहांद्रो अमेनबार शायद कलेजा जेब में लेकर घूमते हैं. उनकी ताज़ा फ़ि‍ल्‍म- चौथी शताब्‍दी के मिस्‍त्र में एक महिला दार्शनिक के गिर्द घूमती- ‘अगोरा’ से भी यही अंदाज़ मिलता है कि कलेजे के साथ एक फ़ि‍ल्‍म कहां-कहां किन गहराइयों तक उतर सकती है. ‘अगोरा’ 62वें कान फ़ेस्टिवल के ऑफिशियल सेलेक्‍शन में थी, लेकिन मैंने देखी नहीं, यहां उसकी बात नहीं कर रहा, एक और वास्‍तविक कहानी- उतनी पुरानी नहीं- 25 वर्ष की उम्र में दुर्घटनाग्रस्‍त होकर पूरी तरह विकलांगता का शिकार हुए रामोन साम्‍पेद्रो जो अगले 29 वर्षों तक अपने आत्‍महत्‍या के ‘अधिकार’ के लिए अदालती लड़ाई लड़ते रहे, और 1998 में साइनाइड पीकर अपनी जान ली, 2004 में अलेहांद्रो ने बिछौने में क़ैद रामोन के जीवन पर ‘द सी इनसाइड’ फ़ि‍ल्‍म बनायी, उसकी तारीफ़ में कुछ पंक्तियां लिखना चाहता हूं.

और रामोन साम्‍पेद्रो के जीवन की मुश्किलों, स्‍वयं को खत्‍म करने के उसके चुनाव की नैतिक जिरह में नहीं उतरूंगा, अलग-अलग समाजों में उसके अलग नैतिक परिदृश्‍य होंगे, हमारे यहां तो समलैंगिकता से पार पाने में ही अभी शासन को हंफहंफी छूट रही है, मैं फ़ि‍ल्‍म की संगत के सुख तक स्‍वयं को सीमित रखूंगा.

साहित्‍य में ऐसा नहीं होता, पर फ़ि‍ल्‍मों के साथ कभी-कभी सचमुच ऐसा हो जाता है कि लगता है कोई जादू था, सब चीज़ें जैसी चाहिये ठीक वैसे अपनी जगह सेट हो जाती हैं. अभी कुछ महीनों पहले देखी ‘द डाइविंग बेल एंड द बटरफ्लाई’ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. मज़ेदार बात यह है कि वह फ़ि‍ल्‍म भी शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम चरित्र के गिर्द केंद्रित थी, शुरू में एक खास तरह का धीरज मांगती है लेकिन फिर जैसे ही आप फ़ि‍ल्‍म के साथ हो लेते हैं लगता है इससे बेहतर, इससे खूबसूरत मार्मिक यात्रा संभव नहीं था!

द सी इनसाइड’ के संसार में बहुत लैंडस्‍केप नहीं है. बिस्‍तरे पर रामोन और उसकी देखभाल में जुटा बड़े किसान भाई का परिवार है, फिर कुछ वैसे लोग हैं जो उसकी अदालती लड़ाई का हिस्‍सा हैं. मगर रामोन के रूप में यावियार वारदेम से अलग बाकी चरित्रों की कास्टिंग ही नहीं, हर किसी का चयन आपको हतप्रभ करता रहता है कि सबकुछ इतना दुरुस्‍त कैसे हो गया, रामोन की बातें सही मात्रा में तकलीफ़ और ह्यूमर का ऐसा मेल कैसे हुईं. और फिर मज़ेदार कि ऐसे विषय के बावज़ूद फ़ि‍ल्‍म में किसी तरह की आंसू-बहव्‍वल भावुकता नहीं है. फ़ि‍ल्‍म रामोन को वह समूची गरिमा देती है जिसकी कामना में वह अपना जीवन खत्‍म कर लेना चाहता रहा होगा.

ब्रावो अलेहांद्रो.

7/02/2009

फ़ि‍ल्‍मी भटकानी: नई पुरानी



लीना वर्टमुलर की इटैलियन ‘सेवेन व्‍यूटिज़’, अर्जेंटिनी लुचिया प्‍योंजो की ‘XXY’, जोकिम त्रायर की लेखकीय जीवन के सजीले भविष्‍य व दोस्तियों की महीन छानबीन करती नोर्वेजियन 'रिप्राइस', यान कादर की प्‍यारी काली-सफ़ेद चेक फ़ि‍ल्‍म 'बड़ी सड़क की दूकान', वित्‍तोरियो दि सिका की एकदम शुरुआती 1944 की 'बच्‍चे हमें देख रहे हैं', लुई बुनुएल के मैक्सिकन दौर की आखिरी 'द एक्‍सटर्मिनेटिंग एंजल', जापानी घटक(?)मिकियो नारुसे की 'बेटी, बीवियां और एक मां'. फिर सदाबहार मेरे पुराने पसंदीदा जॉन फ्रांकेनहाइमर की चमकदार काली-सफ़ेद बर्ट लैंकास्‍टर स्‍टारर फ्रेंच पार्टिज़न लड़ाई के दिनों की कहानी 'द ट्रेन', इलीया कज़ान की मारलन ब्रांडो, एंथनी क्‍वीन स्‍टारर रोमेंटिक रेवोल्‍यूशनरी स्‍टाइनबेक लिखित स्क्रिप्‍ट 'विवा ज़पाता!.