7/04/2009

वामोस, कॉम्‍पानियेरो

मुश्किल विषयों पर आसान-सी दिखती तरंगभरी फ़ि‍ल्‍म बना लेना कलेजे का काम होगा. लेकिन चिलीयन निर्देशक अलेहांद्रो अमेनबार शायद कलेजा जेब में लेकर घूमते हैं. उनकी ताज़ा फ़ि‍ल्‍म- चौथी शताब्‍दी के मिस्‍त्र में एक महिला दार्शनिक के गिर्द घूमती- ‘अगोरा’ से भी यही अंदाज़ मिलता है कि कलेजे के साथ एक फ़ि‍ल्‍म कहां-कहां किन गहराइयों तक उतर सकती है. ‘अगोरा’ 62वें कान फ़ेस्टिवल के ऑफिशियल सेलेक्‍शन में थी, लेकिन मैंने देखी नहीं, यहां उसकी बात नहीं कर रहा, एक और वास्‍तविक कहानी- उतनी पुरानी नहीं- 25 वर्ष की उम्र में दुर्घटनाग्रस्‍त होकर पूरी तरह विकलांगता का शिकार हुए रामोन साम्‍पेद्रो जो अगले 29 वर्षों तक अपने आत्‍महत्‍या के ‘अधिकार’ के लिए अदालती लड़ाई लड़ते रहे, और 1998 में साइनाइड पीकर अपनी जान ली, 2004 में अलेहांद्रो ने बिछौने में क़ैद रामोन के जीवन पर ‘द सी इनसाइड’ फ़ि‍ल्‍म बनायी, उसकी तारीफ़ में कुछ पंक्तियां लिखना चाहता हूं.

और रामोन साम्‍पेद्रो के जीवन की मुश्किलों, स्‍वयं को खत्‍म करने के उसके चुनाव की नैतिक जिरह में नहीं उतरूंगा, अलग-अलग समाजों में उसके अलग नैतिक परिदृश्‍य होंगे, हमारे यहां तो समलैंगिकता से पार पाने में ही अभी शासन को हंफहंफी छूट रही है, मैं फ़ि‍ल्‍म की संगत के सुख तक स्‍वयं को सीमित रखूंगा.

साहित्‍य में ऐसा नहीं होता, पर फ़ि‍ल्‍मों के साथ कभी-कभी सचमुच ऐसा हो जाता है कि लगता है कोई जादू था, सब चीज़ें जैसी चाहिये ठीक वैसे अपनी जगह सेट हो जाती हैं. अभी कुछ महीनों पहले देखी ‘द डाइविंग बेल एंड द बटरफ्लाई’ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. मज़ेदार बात यह है कि वह फ़ि‍ल्‍म भी शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम चरित्र के गिर्द केंद्रित थी, शुरू में एक खास तरह का धीरज मांगती है लेकिन फिर जैसे ही आप फ़ि‍ल्‍म के साथ हो लेते हैं लगता है इससे बेहतर, इससे खूबसूरत मार्मिक यात्रा संभव नहीं था!

द सी इनसाइड’ के संसार में बहुत लैंडस्‍केप नहीं है. बिस्‍तरे पर रामोन और उसकी देखभाल में जुटा बड़े किसान भाई का परिवार है, फिर कुछ वैसे लोग हैं जो उसकी अदालती लड़ाई का हिस्‍सा हैं. मगर रामोन के रूप में यावियार वारदेम से अलग बाकी चरित्रों की कास्टिंग ही नहीं, हर किसी का चयन आपको हतप्रभ करता रहता है कि सबकुछ इतना दुरुस्‍त कैसे हो गया, रामोन की बातें सही मात्रा में तकलीफ़ और ह्यूमर का ऐसा मेल कैसे हुईं. और फिर मज़ेदार कि ऐसे विषय के बावज़ूद फ़ि‍ल्‍म में किसी तरह की आंसू-बहव्‍वल भावुकता नहीं है. फ़ि‍ल्‍म रामोन को वह समूची गरिमा देती है जिसकी कामना में वह अपना जीवन खत्‍म कर लेना चाहता रहा होगा.

ब्रावो अलेहांद्रो.

1 comment:

Navin rangiyal said...

प्रमोद जी , नमस्कार,
कई दिनों से आपके ब्लॉग को पढ़ता रहा हूँ और कई सारे ब्लॉग देखे भी लेकिन वास्तव में आपका सिलेमा देखकर ही उत्साह जागा और ख़ुद के लिए ब्लॉग बनाने का निश्चय किया , फिल्मों के बारे में पढ़ना, सुनना , देखना ,लिखना और महसूस करना अच्छा लगता है इसलिए अक्सर आपके सिलेमा पर चला आता हूँ , हालांकि फिल्मों के बारे में आपकी जो समझ है वंहा तक अभी नही पहुचा हूँ लेकिन कोशिश जारी है, आपकी समझ, सोच , जानकारी और भाषा अद्भुत है, सिलेमा को मै न सिर्फ़ पढ़कर बल्कि देखकर, निहारकर और महसूस कर के कुछ न कुछ सीखता रहता हूँ ... सिखाने के लिए आपका शुक्रिया... कभी मेरे औघट घाट पर पधारें। मोक्ष।