3/18/2010

दायें या बायें के सिवा और भी बहुत-बहुत कुछ..

कल रात रॉबर्ट आल्‍टमैन की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित फ़ि‍ल्‍म ‘कुकीज़ फॉरच्‍यून’ देखकर अनजाने एक बार फिर चकित हो रहा था कि यह जीवटधनी बूढ़ा कलाकार आखिर क्‍या खाकर इतनी सहजता से ऐसी सघन बुनावट हासिल कर लेता है. ख़ैर, अचरच और ‘ऑ’ की कुर्सी पर ढहे उनके काम को देखते हुए फिर यह भी याद आता है कि ऑल्‍टमैन पुराने, पके तोपख़ां थे.. ‘नैशविल’ और ‘शॉटकर्ट्स’ जैसी फ़ि‍ल्‍में बना पाना उन्‍हीं के बूते की बात थी. मगर आज शाम अभी तक अनरिलीज़्ड फ़ि‍ल्‍म ‘दायें या बायें’ का एक प्रीव्‍यू देखते हुए एक दूसरी तरह के अचरज से रूबरू होना पड़ रहा था, पहली बात तो यह कि फ़ि‍ल्‍म की निर्देशक बेला नेगी पुरानी और पकी नहीं, और यह दरअसल उनकी पहली फ़ि‍ल्‍म है, तो पहला झटका तो फ़ि‍ल्‍म देखते हुए आपको इसी का लगता है कि सचमुच लड़की ने क्‍या खाकर (या पीकर?) यह किस तरह की स्क्रिप्‍ट लिखी है.. और कंप्‍यूटर पर लिख भी ली है तो संसाधनों के किस पहाड़ पर चढ़कर आखिर इस तरह की बीहड़ बुनावट को कैमरे में कैद करने का काम अंजाम दिया कैसे है. आप सोचने के जंगल में उतरते हैं और फिर फ़ि‍ल्‍म की बनावट के धुंधलके में कहीं आगे जाकर खो जाते हैं, ‘यह रियल, और इतनी ‘एक्‍सेसीबल’ दुनिया ठीक-ठीक बुनी कैसे गई होगी’ के सवाल का संभवत: कोई प्रॉपर, प्रॉपर सा जवाब आपके हाथ नहीं आता.

दायें या बायें’ के बारे में यह तथ्‍य इसलिए भी दिलचस्‍प है क्‍योंकि आम तौर पर हमारे यहां फ़ि‍ल्‍में एक कहानी कहने से ज्‍यादा कभी ‘अस्‍पायर’ नहीं करतीं. आम तौर पर इतना तक काफी घटिया तरीके से करती हैं, कभी-कभी ही ज़रा कम घटिया तरीके से करती हैं. बीच-बीच में किसी ‘ओय लकी, लकी ओय’ का चले आना इसीलिए हैरत का एक दुलर्भ मौका बनता है. मगर हमें यहां, फिर, नहीं भूलना चाहिए कि दिबाकर की फ़ि‍ल्‍म एक चोर की अपराध-कथा थी, फ़ि‍ल्‍म से अपराध-कथा की नाटकीयता और सेंसेशन जुड़े थे, ‘दायें या बायें’ का मज़ा है कि उसमें कोई सेंसेशनल एलीमेंट नहीं है, बंबई से पहाड़ के अपने गांव लौटे नायक के असमंजस और पटकन की पिटी दुनिया है. मगर फिर, फ़ि‍ल्‍म की शुरुआत में ही, इंटीरियर देहात के मध्‍य एक बाहर से लौटे फुटबॉल के लुढ़काते ही अचानक वह पीछे छोड़ी दुनिया, तनाव, द्वंद्वों, कामनाओं के किस, कैसे सजीले, रंगीले कलाइडोस्‍कोप में बदल जा सकेगा, इसका अंदाज़ मेरे, या किसी के भी कहे, किसी स्‍थूल, इकहरे कहानी के नैरेशन में नहीं, प्रत्‍यक्ष रुप से फ़ि‍ल्‍म की संगत में फ़ि‍ल्‍म देखते हुए ही हो सकती है.

‘दायें या बायें’ की कहानी कहने की कोशिश ख़तरे से कुछ इसी तरह खाली नहीं, जैसे कोई विनोद कुमार शुक्‍ल की लेखनी की खासियत उनकी कहानी में खोजने की कोशिश करे. वह कहानी तो है ही, मगर कहानी से ज्‍यादा खुले मैदान में हंसते हुए लबर-झबर बच्‍चों के भागने और अनाज पीसती देहात की औरतों के ख़ामोश चेहरों के सघन दृश्‍यबंधों की दुनिया है. और कहीं ज्‍यादा रोचक इसलिए भी है कि उसे बंबई के एक्‍टर अभिनीत नहीं कर रहे, स्‍थानीय झुर्रीदार चेहरे अपनी हंसियों में कैमरे के आगे उसके परतदार भेद खोल रहे हैं. ऊपर से बोनस यह कि वहां प्रकट, अप्रकट कोई गूढ़ बौद्धिकता नहीं काम कर रही, इस परतदार पैकेजिंग में सरस, ठेठ ठिठोली वाला आनंद है! जहां कहीं फ़ि‍ल्‍म दिमाग पर भारी होती सी लगती भी है तो उसका असर भी कुछ वैसा बनता है मानो वह फ़ि‍ल्‍म की बजाय, फ़िल्‍म के किरदारों से जनित है, मानो देहातियों के साथ की किसी लंबी यात्रा में आप उनके आंतरिक विद्रूप की अतिशयता में थक रहे हों..

फ़ि‍ल्‍म देखने के बाद इस अहसास की खुशी होती है कि बतौर माध्‍यम सिनेमा अब भी अपने देश में एक संभावना है, और वह फ़ि‍ल्‍मकार के हित में सिर्फ़ यही दिखाने का जरिया नहीं कि वह कितना स्‍मार्ट है, या जिन जड़ों से आया है उसकी कितनी स्‍मार्ट, एक्‍ज़ॉटिक पैकेजिंग करने का उसने हूनर हासिल कर लिया है. बेला ने अपनी पहाड़ी पृष्‍ठभूमि और स्‍थानीयता को जो सिनेमाई अरमान और ऊंचाइयां दी हैं, उसके लिए जितनी भी उनकी तारीफ़ की जाए, कम है. भयानक शर्म की बात है कि फ़ि‍ल्‍म के तैयार होने के एक साल बाद भी फ़ि‍ल्‍म के निर्माता सुनील दोषी उसे रिलीज़ करने की दिशा में कोई भी कदम उठाते नहीं दिख रहे. इस दो कौड़ि‍या आचरण पर कोई उनसे जवाब तलब करेगा? मीडिया, कुछ करेगी?

2 comments:

nidhi said...

bahut besabr lmba intezar rha is film ko dekhne ka ...mza aaya pdh kr kuch jhlkiyaan paai.mze ki baat hai film prdarshit n bhi ho tb bhi acchi buri gandh pahunch hi jati hai

vinod said...

film pahar ka wah chehra dikhati hai jo vastav mai hai.comedy ke sath.Bela ne bahut kuch kar dikhaye hai. Sabash Bela. Ham Nainital film festival mai ise dekhenge 29th Nov ko.