4/21/2010

हूं, देख ली, निकल लिये..


हाल के दिनों की देखी कुछ फ़ि‍ल्‍में.
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इतालवी: अंग्रेजी में 'लाइक शेडोज़', फ्रेंच: 'ल वियों रोज़', इतालवी: 'इल पार्तिजानो जॉन्‍नी', चीनी मुख्‍यधारा की (अंग्रेजी में) 'वन फुट ऑफ़ द ग्राउंड', फ्रेंच, जुने की 'मिकमाक्‍स', जापानी: 'लव एंड पार्क होटेल'..





4/10/2010

जाने कहां गए वो दिन टाइप की चंद पुरानी यादें..



हाय रे ज़माना, कैसा बदला तेरा फ़साना. क्‍या थे क्‍या हो गए टाइप. हालांकि तब, पहले भी, यह नहीं ही रहा होगा कि आदर्शलोक के हम आदर्शलोग थे, फिर भी. मतलब इस एकता का प्रतीक वीडियो में ही ज़रा बाबू-बबुनी की आवाज़ की मिठाई और उसकी मासूमियत पर ग़ौर फ़रमाइए, यह मिठाई अब हमारे सार्वजनिक जीवन में कहां बची है? किसी फ़रेबी मार्केटिंग गिमिक से अलग हमारे मनों में भी इस भोलेपने का कहीं कोई स्‍थान है? सब कितना बदल गया है, और वह पहाड़ और जंगलों के आदिवासियों के दुर्दांत जीवन में ही नहीं, शहरों की तथाकथित खुशहालियों के बीच मन का निर्मम दलिद्दरलोक हम सबों के जीवन को कैसे लीले जा रहा है इसे देखने के लिए दिबाकर बनर्जी के अभी तक के तीनों में से किसी भी फ़ि‍ल्‍म को उठाकर आप देख सकते हैं. शायद बहुत कुछ यही दिबाकर की फ़ि‍ल्‍ममेकिंग की खास बात है, यह नहीं कि अभी तक क्‍या कहानियां वह कहते आए हैं, बल्कि यह कि वह कहानियां कही कैसे हैं, हमारे नगरीय जीवन के अंतर्लोक के भयावह दलिद्दर को कितना सहज रूप से कैसे कह गए हैं, जहां कोई देश और कोई राष्‍ट्र नहीं है, और अंतत: हर कोई अपने सामनेवाले का सिर्फ इस्‍तेमाल करने के जोड़-गांठ कर रहा है, मतलब वही कि रही होगी पहले भी यह दुनिया आदर्शच्‍यूत, मगर अब आलम है कि आदर्शों की चर्चा अब हास्‍यास्‍पद और विद्रूप का भाव पैदा करते हैं, आदर्शों के चित्र उकेरने वाला अब 'कूल' कतई नहीं दिखेगा. आज से करीब तैंतालीस वर्ष पहले, 1967 में, आज़ादी के बीस वर्ष बाद, फ़ि‍ल्‍म्‍स डिविज़न की बनाई इस बीस मिनट की डॉक्‍यूमेंट्री 'उमर 20 की' में वह कुछ कालिखमिला ही सही, कोमलता बची थी, अब जाने कहां घुस गई है..

यह रहा दसेक मिनट का पहला हिस्‍सा:



और यह दूसरा:



देखकर फिर कुछ सोचते बैठें..