5/14/2015

देखना..

कभी फुरसत में इसके साथ थोड़ा समय बिताइयेगा.. भारत में नृत्‍य, आधे-आधे घंटे के दो टुकड़ों में है..

3/31/2015

दो पुरानी और एक नई शैतानी, के सुख

एक उम्र के बाद निर्मम होकर हिन्‍दी फिल्‍में देखनी बंद कर देनी चाहिये. मगर फिर, एक उम्र के बाद, निर्मम होकर आदमी गोलगप्‍पे और समोसे खाना नहीं बंद कर पाता तो खुद को बहलाने के लिए मन ही मन गुनगुनाता ‘जाने कहां गये वो दिन’ के रुमानी ख़्याल में फिल्‍म में जो नहीं है वैसे निहितार्थों को भी पढ़ता हुआ फ़ि‍ल्‍म के चैप्‍टर्स पलटने लगता है. और इस पुनर्दर्शन के बीस मिनट भी नहीं बीतते कि उसके लिए चोरी से गोलगप्‍पे खाने और बेहयायी से फ़ि‍ल्‍म देखने में कोई विशेष फर्क नहीं रह जाता. आज बहुत सारे फेसबुक कर रहे बच्‍चे उस वर्ष तक अभी पैदा नहीं हुए थे, तो 1970 की फि‍ल्‍म है. राज कपूर का स्‍वान सॉंग जैसा कुछ था. कहानी-पटकथा अपने हमेशा के ज्‍वलनशील, प्रगतिशील अब्‍बास साहब की होशियारी थी, लेकिन फिल्‍म से शंकर सिंह रघुवंशी और जयकिशन दयाभाई पांचाल की धुनें और शैलेंद्र और हसरत बाबू के चार और पांच गानों को हटा दीजिये तो आज के दर्शक के लिए फि‍ल्‍म में शायद ऐसी कोई गुफ्तगू नहीं बचती जिसके तारों में, कोशिश करके भी, वह कहीं उलझ, अटक सके. बारिश में कपड़े गीले करके दूर तक विरह गाती जाती पद्मिनी को 'मोहे अंग लग जा बालमा' को देखकर आप खुद को बहलाते रहते हैं, उसके सिवा बहुत सोचने को फिर बचता नहीं.. जय हो कपूर साहब और अब्‍बास साहेब का जा रे जमाना.

‘27 डाऊन’ चार वर्ष बाद, 1974 में बनी थी और उसका हिसाब ‘मेरा नाम जोकर’ की मल्‍टी-स्‍टारर वाली बराबरी का नहीं है, फिर भी, चालीस वर्षों के अन्‍तराल पर उसे देखते हुए, किसी महीन गुफ्तगू के अभाव में, मन वहां भी उसी तेजी से उखड़ना शुरू करता है. प्रथम पुरुष में रह-रहकर नायक की सोलोलॉकी चलती रहती है और उसका स्‍तर पिटे अस्तित्‍वादी चिंताओं की तिलकुट बुनकारी व अदाओं से बहुत ऊपर नहीं उठता. एमके रैना ने तीन या चार हिन्‍दी फिल्‍मों में जो अभिनय किया है, उन फिल्‍मों से यही अहसास होता है कि अपने चेहरे के भावों से ज्‍यादा उन्‍हें अपनी फैली दाढ़ी का आत्‍मविश्‍वास रहा है. अलबत्‍ता यहां उस दौर के उपनगरीय बंबई की छटा अपूर्व किशोर बीर की सिनेकारी में जिस धज और निखार के साथ देखने को मिलती है, फिल्‍म का वह पहलू अभी भी डेटेड नहीं हुआ है. उसी तरह बंसी चंद्रगुप्‍त का प्रोडक्‍शन डिज़ाईन. बाकी फिल्‍म में याद रखने लायक कुछ नहीं है, मानकर चलिये ट्रेन आई थी और निकल गई.

जैसे हाल में अभी एक और, सुचिंतित कलाकर्म, ‘बदलापुर’ की शक्‍ल में आई थी. फिल्‍म के आखिरी बीसेक मिनट के कसाव और लिखाई को हटा दें तो बकिया का डेढ़ घंटा आप गंभीरता से विचलित होते सोचने से नहीं ही बच पाते कि फिल्‍म के पीछे ऐसा चिंतन क्‍या है, और बदलापुर क्‍यों आई है, और उसमें दर्शक के तौर पर, हम क्‍यों आये हैं. पके और थके हुए लोग एक-दूसरे पर नीचता की हिंसा की तरकीबें आजमाते रहें का होनहार करम हमें क्‍या नई बात बता सकता है. नहीं ही बताता.

मैं फिर सोच रहा हूं एक उम्र के बाद हिन्‍दी फिल्‍में देखनी बंद कर देनी चाहिये. सवाल यही है कि मालूम नहीं वह उम्र क्‍या है.


3/12/2015

काली और सफ़ेद

धूप में चुनचुनाते माथे, किसी का इंतज़ार करते, आइसक्रीम चुभलाते-सी कुछ छोटी फ़ि‍ल्‍में होती हैं, फिर मीठे-लाल लबालब तरबूज की उम्‍मीद वाली कुछ बड़ी फ़ि‍ल्‍में होती हैं, और छोटी-बड़ी इन रंग व मिज़ाज अनुभूतियों से बाहर, टेक्‍नोलॉजी व सिनेमाई वितरण के पारम्‍परिक अर्थतंत्र को धता बताता, फिर एक स्‍वायत्‍त संसार होता है काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों का, धीमे-धीमे फैलकर आपकी धमनियों में जगह बनाती और मन में एक अलग किस्‍म के गुफ़्तगू का आस्‍वाद छोड़कर माथे में डोलती, अटकी रहती हैं. आखिरी क्‍या ब्‍लैक एंड व्‍हाइट फ़ि‍ल्‍म थी जिसके देखे का मीठा अब तक बसा है मन में, अभी भी याद है?

रहते-रहते प्रोड्युसरों को बुखार चढ़ता है और वो पुरानी काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों को रंगीन में बदलकर चार पैसा और कमाने के अरमान में कुलबुलाने लगते हैं, ऐसा करके काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों में जो उनका एक विशिष्‍ट ‘टाइमलेसनेस’ का एलीमेंट होता है, उसे रंगीन के स्‍थूल व भद्दे में बदलकर, कुछ पैसा भले कमा लेते हों, सिनेमाई तृप्ति कोई कैसे पाता है, यह सवाल मेरे लिए अब तक घनघोर मिस्‍ट्री है.

और वह दूसरा सवाल भी कि आखिरी वह कौन फ़ि‍ल्‍म थी, काली-सफ़ेद, जिसके चपेटे में आपका मन गुनगुनाकर (सुहाना सफ़र है ये मौसम हसीं) बहलता नर्गिस और प्रदीप कुमार के दिल की गिरहों को खोल देने की चुनौतियां देने लगता था, या ‘साहब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू की ‘अजीब दास्‍तां है ये, कहां शुरु कहां खतम’ का तराना छेड़कर फिर किन्‍हीं अंधेरों में गुम हो जाया करता..?

पिछले कुछ अरसों की मेरे ख़याल में घूमकर सबसे पहले नोआ बाउमबाक (उच्‍चारण सही है?) की ‘फ्रांसेस हा’ आती है, और उसके पीछे-पीछे अलेक्‍सैंडर पाइन की ‘नेब्रास्‍का‘. फिर गये साल की पोलिश, ऑस्‍कर नवाज़ी गई, ‘इदा’ का अपने ठहरावी बुनावट में, धीरे-धीरे लोग व सैरों को देखने का, एक ‘रंग नहीं, ये काला-सफ़ेद बोलता है’ जलवा था. और फिर अभी ताज़ा-ताज़ा डिलन टॉमस की सनकों के गिर्द बुनी, एंडी गोदार की ‘सेट फायर टू द स्‍टार्स’ देख रहा था, उतनी महीन नहीं, फिर भी काली-सफ़ेद का संगीन तो है ही..


3/05/2015

एक अभिनेत्री की देह

अभिनय अजीब खेल है जिसमें बाज दफ़ा मौके बनते हैं जब खेलने को हाथ में कुछ नहीं होता. मसलन एकांत के ये कुछ सिचुयेशंस लीजिये. ज़रा-सी रौशनी के बिछौने में उठंगे लेटे, सरककर कोई चीज़ उठानी है, माथे के पीछे हाथ लिये किसी पुरची से कुछ पढ़ने लगना है, उठकर दरवाज़ा खोलना, सीढ़ि‍यां उतरकर रसोई में आना, कुर्सी पर बैठना है, और इसी तरह कुछ देर बैठे रहना है. ऐसे इंस्‍ट्रक्‍शंस, जिसमें मुंह बनाना, या हाथ-पैर चलाना, या बंदबुद्धि की अन्‍य पशुवत हरकतें नहीं करनी हों, को पढ़कर हिन्‍दी सिनेमा का एक्‍टर क्‍या करेगा? या तो सचमुच मुंह बनाने लगेगा, या बैठी हुई कुर्सी से उठकर सचमुच दरवाज़े से बाहर निकल जाएगा जहां उसे ऐसी अमूर्त बुनावट की कथा और वैसे सोच के निर्देशक के साथ काम करके अपना नाम (और दाम) उलझाने का संकट न खड़ा हो.  

हिन्‍दी सिनेमा किसी भी तरह के एकांत से, कैसे भी अमूर्तन से, तीन हाथ तो क्‍या कहें, तीन किलोमीटर की दूरी बनाकर चलता है. एक्‍टर को हमेशा कुछ करते हुए दिखना होता है, वह जब कुछ नहीं कर रहा हो का दृश्‍य निर्देशक की कल्‍पना व स्क्रीनप्‍ले की संरचना में हो तो भी वह फाईनल फ़ि‍ल्‍म में जगह नहीं पाती. कैसा भी किरदार हो, बिना दांत चियारे की उसकी हंसी नहीं होती. बंद मुंह की हंसी का ख़याल हिन्‍दी सिनेमा के लिए अभी भी घबराहट व एंग्‍साइटी का संसार है. इसीलिए भी है कि चेहरे व हाव-भाव की स्‍थूल अभिव्‍यक्तियां वह सीपी में फटी आंखों टहलता पीके हो, या सींखचों के पीछे और उससे बाहर उखड़ती व लाजवाब होती जर्नलस्‍टन बाला, उनकी इन्‍हीं उछल-कूद के बीच हिन्‍दी सिनेमा में हम अभिनय की पहचान में अब तक आंखें फाड़े रहते हैं. मेरी तरह का पुरनिया, थका हुआ दर्शक, आंख या अन्‍य कुछ फाड़ने के बजाय, ऊबकर फ्रेंच फ़ि‍ल्‍मों की तारिकाओं के न कुछ करने के एकांतिक क्षणों के महीन पाठों के संधान में निकल जाता है.

पांचवे दशक के एकदम शुरू की ‘कास्‍क द'ओर' के ज़माने से ही फ्रेंच सिनेमा में सिमोन सिग्‍नोरेत की भव्‍य उपस्थिति का जलवा रहा है. उनके पीछे-पीछे ज़्यां मोरु, एनी ज़ेरारदो, कैथरीन देन्‍युव, इमानुयेल बर्ट, इसाबेल अद्यानी, और जुलियेट बिनोश जैसी अनूठी अभिनेत्रियों की लाजवाब कड़ी रही है. उससे बाद के दौर में ऑद्री ततू, मारियन कोतीलार, सेसील दे फ्रांस, मेलनी लॉरें जैसी दिलकश तारिकायें रही हैं. इन सभी नामों के बीच जो एक कॉमन थ्रेड है वह ये कि अच्‍छी अभिनेत्रियां होने के साथ-साथ ये फ़ाम, फताल भी वैसी ऊंचाइयों वाली रही हैं. बिनोश या अद्यानी का अच्‍छा अभिनय सराहते-सराहते आपको ख़बर भी न होती थी और छिपी नज़रों आप खुद को उनकी देह सराहते, व उसमें कुछ का कुछ तलाशते, पाते थे! और आपका कसूर होता भी नहीं होता था. मगर फिर फ़ाम फताली इन करिश्‍मों से बाहर चंद कुछ और नाम हैं जिनका अभिनय देखते हुए हम वह अभिनय ही देखते रहते हैं, सुगठित सौंदर्य का दबाब हमारे देखने के आड़े नहीं आता. कारीन विराद की कॉमिक उपस्थिति याद करिये, कुछ नहीं दिखनेवाले चीज़ों व परिस्थियों के रोज़मर्रे के दृश्‍यों में भी वह अपनी मौजूदगी से दायें-बायें अर्थ भरती रहती है. फिर फ्रेंच सिनेमा की अपनी दिलीप कुमारा इसाबेल हुपेर हुईं, पारम्‍परिक अर्थों में किसी भी सूरत में मनमोहिनी तो कतई नहीं, मगर शाब्रोल की ‘मदाम बॉवरी’ या ‘पियानो टीचर’ की उन सन्‍न उपस्थितियों के मार्मिक अभिनय-राग को याद करिये, धीमे-धीमे फिर खुलेगा हुपेर किस कैसे कैलिबर की एक्‍टर है. इससे आगे एक तीसरा नाम लेता हूं, गई रात जिसकी एक फ़ि‍ल्‍म निरखते हुए इस टिप्‍पणी को दर्ज़ करने का ख़याल आया, चौंसठ की जन्‍मी यह हैं इमानुयेल देवोस. भारी देह व फैली हड्डि‍यों वाली, कोई समझदार फ्लर्ट करने के पहले तीन मर्तबा सोचेगा (इतने वर्षों से मैं अभी तक सोच ही रहा हूं), ज़्यादा समझदार हुआ तो कुछ नहीं सोचेगा, सिर्फ़ उसकी लाजवाब उपस्थिति व अभिनय के जादू में बंधा सिनेमाई समय की गिनती भूल, देवोस की अगली फ़ि‍ल्‍म के इंतज़ार में, घबराया हिन्‍दी फ़ि‍ल्‍में देखता अपना समय खराब करेगा.

फिर ऐसा क्‍या ख़ास है भारी देह की, और बहुत हद तक टेढ़े नाक-नक्‍श वाली इस अनाकर्षक अभिनेत्री की उपस्थिति में? अच्‍छे अभिनय के लिए आमतौर पर लोग चेहरे पर विविधरंगी भाववन क्रियेट कर लेने की काबिलियत पर आश्रित होते हैं, इमानुयेल उससे तीन कदम और आगे जाकर अपने अभिनय के स्‍पेस में एक ऐसी दुनिया बुनती है जहां सिर्फ़ उसका चेहरा ही नहीं होता, पूरी देह, उसकी एक-एक बात, मानो उस किरदार विशेष की अंतरंग अनुभूतियों में सरोबार होता है. एक स्‍त्री का इस तरह अपनी देह से मुक्‍त हो जाना, और उसके समूचे अमूर्तन में अपने किरदार के कोने-अंतरे टटोलकर उसकी भव्‍य बुनावट खड़ी करते जाना, और एक बार नहीं, एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात ऐसी ढेरों फ़ि‍ल्‍मों में, बार-बार उसे हासिल करना सचमुच विरल है.

इन पंक्तियों का लेखक बीस वर्षों से फ़ि‍ल्‍म बनाने की सोच रहा है, यह और बात है कि उसने इतने अर्से में बीस मिनट की कोई वीडियो भी नहीं बनाई, लेकिन कभी अगर कोई एक फ़ि‍ल्‍म बना सका, भले वह भोजपुरी में ही क्‍यों न हो, वह चाहेगा इमानुयेल देवोस उसका ज़रूर हिस्‍सा हों, भले वह आंख के आगे परदा किये (मेरे लिए, और सिर्फ़ मेरे लिए) ‘कितनी अकेली कितनी तन्‍हा तुमसे मिलने के बाद’ गाती ही क्‍यों न दीखे.



3/02/2015

फॉक्‍सकैचर

बेनेट मिलर ने इससे पहले दो फीचर और बनाई हैं, ‘कपोटे’ व ‘मनीबॉल’, सधी फ़ि‍ल्‍में थीं, मगर पिछले वर्ष की रिलीज्‍ड ‘फॉक्‍सकैचर’ की बुनावट ज़्यादा सघन व महत्‍वाकांक्षी है. वह यह भी दर्शाती है कि पैसा व तकनोलॉजी के दबावों-तनावों में गहरे बंधे-फंसे मुख्‍यधारा तमाशालोक से इतर पश्चिम लगातार ऐसी फ़ि‍ल्‍मों के लिए भी स्‍पेस मुहैया करवा ही लेता है जो अपनी कहन में ईमानदार रहते हुए सिनेमा की अपनी महत्‍तर संभावनाओं व उसका औपन्‍यासिक संगठन हासिल कर सकें. मंथर गति की व प्रकट नाटकीयताओं से बचती पॉल थॉमस और वेस एंडरसन वाली बुनावट और आकांक्षाएं अदरवाइस हॉलीवुड में संभव नहीं होतीं. न अलेहांद्रो इन्‍नरीतु की ‘बियूटीफुल’ व पाओलो सौरेंतीनो की ‘ला ग्रांदे बेलेत्‍ज़ा’ का शिल्‍पगत विस्‍तार अपनी तफसीलों में हमें ऐसी कलात्‍मक संतुष्टि देता. (माध्‍यम में पैठ की इस समझ के लिहाज़ से हिन्‍दी सिनेमा अब भी निहायत इकहरा व स्‍थूल ही है, और जाने आनेवाले कितने वर्षों तक रहे.)

वापस बेनेट मिलर और उनकी ‘फॉक्‍सकैचर’ पर लौटते हैं. कहानी बहुत सादा और लूज़ली वास्‍तविक घटनाओं पर आधारित है. संक्षेप में इतनी भर है कि निहायत गरीबी में बड़े हुए दो भाई हैं जिनमें छोटा सन् चौरासी ऑल्‍मपिक का वर्ल्‍ड रेशलर चैंपियन रहा है, बड़ा भाई उसका कोच, व बहुत हद तक उसका देखवैया, अभिभावक है, और कुश्‍ती व जीतों के उनके इस निर्दोष सुखी खेल में कैसे तब खलल पड़ता है जब उसे संरक्षण देने के रास्‍ते दु पोंत जैसे एक निहायत अमीर धनपति की एंट्री होती है. दु पोंत स्‍वयं रेशलिंग का पुराना शौकीन रहा है और वह चाहता है कि उसकी साधन-संपन्‍न निगरानी में दोनों भाइयों को उनकी प्रतिभा के अनुकूल वाजिब ट्रेनिंग का स्‍पेस मिले, अगला ओलम्‍पि‍क पदक उसकी चौकसी में जीता जाये, दुनिया में दु पोंत परिवार के खेल-संरक्षण का यश फैले आदि-इत्‍यादि.

चूंकि दोनों भाई (बड़ा डेव, छोटा, चैंपियन, मार्क) खेल और वह भी कुश्‍ती की दुनिया के लोग हैं तो उनके पास बोलने को देह की भाषा है, मुंह से बोलना बहुत सीमित, फंक्‍शनल है. उसी तरह धनपति की बतकहियां भी बहुत संक्षिप्‍त व मशीनी होती हैं, जिसमें उसके निजी संसार की उपस्थिति से ज़्यादा अमरीकी गौरव, राष्‍ट्रीय धरोहर में उसके परिवार की भूमिका, नागरिक का गर्व व उत्‍तरदायित्‍व जैसी बातों पर लगातार बल होता है. मगर ये बातें सत्‍ता से लगातार जुड़े रहने और ऊंचे आसन से जनसंपर्क का सहज पारम्‍परिक परिवारिक संस्‍कार व अभ्‍यास है. इन बातों का ठीक-ठीक क्‍या मतलब है जानने व उनसे जूझने का जॉन दु पोंत की-सी हैसियत वाले व्‍यक्ति को जीवन में मौका मिलता है, न उस पर सोचने की उसे कोई ज़रूरत है. संभावी दूसरी मर्तबा का वर्ल्‍ड चैंपियन मार्क शुल्‍ज़ सुरक्षा व अमीरी के मोह में बंधा दु पोंत की दुनिया में अपने भोलेपन से दाखिल होता है और गाल पर पड़े दु पोंत के एक तमाचे की शक्‍ल में फिर इस दुनिया और उसकी हकीक़तों की उसकी समझ धीरे-धीरे खुलना शुरु होती है. इस संसार की प्राथमिक शर्त है कि उसका आंतरिक-बाह्य सभी प्रबंधन, संचालन धनपति की सनकी अनुकूलता में चले. सत्‍ता व ताकत की भाषा से अनजान, भोला डेव जब इस इक्‍वेशन को मार्क को बचाने की खातिर कहीं हल्‍के-से डिस्‍टर्ब करता है तो उसे धनपति के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ती है.
मगर कुछ पंक्तियों में ऊपर दर्ज़ कहानी से ज़्यादा महत्‍वपूर्ण उसके शिल्‍प के घनेरे तफ़सीलों में है. अच्‍छे उपन्‍यासों की ही तर्ज़ पर अच्‍छे सिनेमा का आनन्‍द उसकी इस शिल्‍पगत सघनता में है. कि धीमे-धीमे खुलती दुनिया का कार्य-व्‍यापार लोगों व संसार के रंग-रूप के किन-किन, कैसे महीन कोनों को हमारे आगे उजागर, एजुकेट करता चलता है. जॉन की मां के रुप में वनेसा रेडग्रेव की एक संक्षिप्‍त उपस्थिति है, मगर मूलत: यह मर्दों का व उनके बीच के सत्‍ता के तनावों, व बदलते इक्‍वेशंस का संसार है.

जो दर्शक स्‍टीव करेल के करियर से आमतौर पर परिचित हैं उनके लिए ‘फॉक्‍सकैचर’ सचमुच तर्जुबा होगी कि जॉन दु पोंत के शुष्‍क, जड़ किरदार में उसने अपनी कॉमिक पहचान का न केवल कैसा दारुण कायाकल्‍प किया है, बल्कि समर्थ तरीके से यह भी दिखाया है कि एक अच्‍छा एक्‍टर फ़ि‍ल्‍म को कितने नये अर्थ दे सकता है. अपनी पारंपरिक पहचानों से अलग शैनिंग टैटम और मार्क रफल्‍लो को भी अपने रेशलर किरदारों में देखना अभिनय-वसूल आनन्‍द है.

ब्रावो, बेनेट मिलर.